पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/२४३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

२५०
मानसरोवर

रामू ने दिठाई के साथ कहा --- जब एक में न गुजर हो, तो अलग हो जाना हो अच्छा है।

सजनसिंह --- तुमको एक में क्या कष्ट होता है ?

रामू-एक बात हो तो बताऊँ।

सजन० --- कुछ तो बतलाओ!

रामू --- साहब, एक में मेरा इनके साथ निबाह न होगा। बस मैं और कुछ नहीं जानता।

यह कहता हुभा रामू वहाँ से चलता बना।

तुलसी --- देख लिया आप लोगों ने इसका मिजाज ! माप चाहे चार हिस्सों में तीन हिस्से उसे दे; पर अब मैं इस दुष्ट के साथ न रहूँगा। भगवान् ने बेटी का दुःख दे दिया, नहीं मुझे खेत-बारी लेकर क्या करना था। जहा रहता वहीं कमा- खाता। भगवान ऐसा बेटा सातवें वैरो को भी न दें। 'लड़के से लड़की भली, जो कुलवतो होय।'

सहसा सुभागी आकर बोली --- दादा, यह सब बार-बखरा मेरे ही कारन तो हो रहा है, मुझे क्यों नहीं अलग कर देते ? मैं मेहनत-मजूरी करके अपना पेट पाल लूंगी। अपने से जो कुछ बन पढेगा, तुम्हारी सेवा करती रहूँगो , पर रहूंगी अलग। यो घर का बाराबाट होना मुझसे नहीं देखा जाता। मैं अपने माथे यह कलक नहीं लेना चाहती।

तुलसी ने कहा --- बेटी, हम तुझे न छोड़ेंगे, चाहे संसार झट जाय ! रामू का मैं मुँह नहीं देखना चाहता, उसके साथ रहना तो दूर रहा।

रामू की दुल्हन बोली --- तुम किसी का मुंह नहीं देखना चाहते, तो हम भी तुम्हारी पूजा करने को व्याकुल नहीं हैं।


महतो दांत पीसते हुए उठे कि यह को मारें ; मगर लोगों ने पकड़ लिया ।

बँटवारा होते ही महतो और लक्ष्मी को मानों पेंशन मिल गई। पहले तो दोनों सारे दिन, सुभागी के मना करने पर भी, कुछ-न-कुछ करते ही रहते थे, पर अब उन्हें पूरा विश्राम था। पहले दोनों दध-घी को तरसते थे। सुभागी ने कुछ रुपये बचाकर एक भैंस ले लो। बूढ़े आदमियों की जान तो उनका भोजन है। अच्छा