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मानसरोवर


गया। उसे भव ज्ञात हुआ कि मेरो बुद्धि, मेरा बल, मेरी सुमति, मानों सबसे मैं वंचित हो गई।

उसने कितनी बार ईश्वर से विनती की थी, मुझे स्वामी के सामने उठा लेना मगर उसने यह विनती स्वीकार न की। मौत पर अपना काबू नहीं तो क्या जीवन पर भी काबू नहीं है ?

वह लक्ष्मी जो गांव में अपनो बुद्धि के लिए मशहूर थी, जो दूसरों को सोख , दिया करती थी, अब बौड़ही हो गई है। सीधी-सी बात करते नहीं बनती।

लक्ष्मी का दाना-पानी उसी दिन से छूट गया। भागो के आग्रह पर चौके में जाती ; मगर कौर कण्ठ के नीचे न उतरता। पचास वर्ष हुए, एक दिन भो ऐसा न हुआ कि पति के बिना खाये उसने खुद खाया हो। अब उन नियम को कैसे तोड़े ?

आखिर उसे खाँसी आने लगी। दुर्बलता ने जल्द हो खाट पर डाल दिया। सुभागी अब क्या करे। ठाकुर साहब के रुपये चुकाने के लिए दिलोजान से काम करने की जरूरत थी। यहाँ मा बीमार पड़ गई। अगर बाहर जाय तो मां अकेली रहती है। उसके पास बैठे तो बाहर का काम कौन करे। मां को दशा देखकर सुभागी समम गई कि इनका परवाना भी आ पहुँचा। महतो को भी तो यही ज्वर था !

गांव में और किसे फुरसत थी कि दौड़ धूप करता। सजनसिंह दोनों वक्त आते, लक्ष्मी को देखते, वा पिलाते, सुभागी को समझाते, और चले जाते ; मगर लक्ष्मी की दशा बिगड़ती ही जाती थी। यहां तक कि पदहवें दिन वह भो ससार से सिधार गई। अतिम समय रामू आया और उसके पैर छूना चाहता था; पर लक्ष्मी ने उसे ऐसो मिहको दी कि वह उसके समीप न जा सका। सुभागो को उसने आशीर्वाद दिया-तुम्हारी-जैसी बेटी पाकर तर गई। मेरा क्रिया-कर्म तुम्हों करना। मेरी मा- वान् से यही अरजी है कि उस जन्म में भो तुम मेरी कोख पवित्र करो।

( ७ )

माता के देहान्त के बाद सुभागो के जीवन का केवल एक लक्ष्य रह गया- सजनसिंह के रुपये चुकाना । ३००) पिता के क्रिया-कर्म में लगे थे । लगभग २००) माता के काम में लगे। ५००) का प्रण था और उसकी अकेली जान ! मगर वह हिम्मत न हारतो थी। तीन साल तक सुभागी ने रात को रात और दिन को दिन न समझा। उसको कार्य-शक्ति और पौरुष देखकर लोग दांतों उँगली दवाते थे। दिन-