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अनुभव

कै !'-मास्टर साहब बड़ा गये।

'हाँ, कै ! एक तांगे पर तो तीन सवारियां ही बैठेगी। सन्दूक, बिछावन, बरतन- भाड़े क्या मेरे सिर पर जायंगे ?'

'तो दो लेता आऊँगा।'--- मास्टर साहब डरते-डरते बोले।

'एक तांगे में कितना सामान भर दोगे।'

'तो तीन लेता आऊँ ?

'अरे, तो जाओगे भी। जरा-सी बात के लिए घटा-भर लगा दिया।'

मैं कुछ कहने न पाई थी, कि ज्ञान बाबू चल दिये । मैंने सकुचाते हुए कहा --- पहन, तुम्हें मेरे जाने से इष्ट होगा और ..

देवीजी ने तीक्ष्ण स्वर में कहा --- हाँ, होगा तो अवश्य। तुम दोनों जून में दो- तीन पाव आटा खाओगी, कमरे के एक कोने में अड्डा जमा लोगी, सिर में आने का तेल डालोगी। यह क्या थोड़ा कष्ट है ?

मैंने झेपते हुए कहा --- आप तो मुझे बना रही हैं।

देवीजी ने सहृदय भाव से मेरा कथा पकड़कर कहा-जब तुम्हारे बाबूजी लौट आचे, तो मुझे भी अपने घर मेहमान रख लेना। मेरा घाटा पूरा हो जायगा । भर तो राजी हुई ? चलो, असबाव बांधो। खाट-बाट कल मँगवा लेंगे।

( ३ )

मैंने ऐसौ सहृदय, उदार, मीठी बाते करनेवाली स्त्री नहीं देखी। मैं उनकी छोटी बहन होती, तो भी शायद इससे अच्छी तरह न रखती। चिन्ता या क्रोध को तो जैसे उन्होंने जीत लिया हो। सदैव उनके मुख पर मधुर विनोद खेला करता था। कोई लड़का-बाला न था, पर मैंने उन्हें कभी दुस्ती नहीं देखा। ऊपर के काम के लिए एक लौंडा रख लिया था। भीतर का स रा काम खुद करतों। इतना कम खाकर और इतनी मेहनत करके वह कैसे इतनी हृष्ट-पुष्ट थो, मैं नहीं कह सकती। विश्राम तो जैसे उनके भाग्य ही में नहीं लिखा था। जेठ की दुपहरी में भी न लेटती थीं। हाँ, मुझे कुछ न करने देतो, उस पर जब देखो, कुछ खिलाने को सिर पर सवार। मुझे यहाँ धस यही एक तकलीफ थी।

मगर आठ दिन गुजरे थे, कि एक दिन मैंने उन्हीं दोनों खुफियों को नीचे बैठे