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मानसरोवर


देखा। मेरा माथा ठनका। यह अभागे यहाँ म मेरे पीछे पड़े हैं। मैंने तुरत बहनजो से कहा -- दोनों बदमाश यहाँ भी मँडरा रहे है।

उन्होंने हिकारत से कहा --- कुत्ते हैं। फिरने दो।

मैं चिन्तित होकर बोली --- कोई स्वाँग खढ़ा करें।

उसी बेपरवाही से बोली --- भूँकने के सिवा और क्या कर सकते हैं ?

मैंने कहा --- काट भी तो सकते हैं।

हँसकर बोली --- इसके डर से कोई भाग तो नहीं जाता न!

मगर मेरी दाल में मक्खी पड़ गई। बार-बार छज्जे पर जाकर उन्हें रहन देख आती। यह सब क्यों मेरे पीछे पड़े हुए हैं ? आखिर मैं नौकरशाहो का क्या बिगाड़ सकती हूँ। मेरी सामर्थ्य ही क्या है। क्या यह सब इस तरह मुझे यहाँ से भगाने पर तुले हैं। इससे उन्हें क्या मिलेगा ! यही तो कि मैं मारी-मारो फिरूं ? जितनी नीची तबीयत है।

एक हफ्ता और गुज़र गया। खुफियों ने पिंड न छोड़ा। मेरे प्राण सूखने जाते ये। ऐसी दशा में यहां रहना मुझे अनुचित मालूम होता था; पर देवोजी से कुछ कह न सकती थी।

एक दिन शाम को ज्ञान बाबू आये, तो घबड़ाये हुए थे। मैं बरामदे में भी। परवल छील रही थी। ज्ञान बाबू ने कमरे में जाकर देवीको को इशारे से बुलाया।

देवीजी ने बैठे-बैठे कहा --- पहले कपड़े-पड़े तो उतारो, मुंह-हाथ धोओ, कुछ खाओ, फिर जो कहना हो, कह लेना।

ज्ञान बाबू को धैर्य कहाँ ? पेट में बात की गंध तक न पचती यौ। आग्रह से बुलाया ! तुमसे उठा नहीं लाता। मेरी जान आफत में है।

देवी ने बैठे-बैठे कहा --- तो कहते क्यों नहीं, क्या कहना है ?

'यहाँ आओ।

'क्या यहाँ कोई और बैठा हुआ है ?

मैं वहां से चली। बहन ने मेरा हाथ पकड़ लिया। मैं बोर करने पर भी न छुपा सकी। ज्ञान बाबू मेरे सामने न कहना चाहते थे ; पर इतना सन्न भो न था बिना देर रुक जाते। बोले --- प्रिन्सिपल से मेरी लड़ाई हो गई।

देवी ने बनावटी गम्भीरता से का-सच ! तुमने उसे खूब पीटा न !