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मानसरोवर


लज्जास्पद शीघ्रता के साथ मुंह में रखते चले जाते हैं कि घर पहुँचते-पहुंचते बालकों के आक्रमण से पहले हो यह पदार्थ समाप्त हो जाय । कितना निराशाजनक होता है यह दृश्य जन्म देखता हूँ कि मेले में बच्चा किसो खिलौने की दुकान के सामने मचल रहा है और पिता महोदय ऋषियों को-सी विद्वत्ता के साथ उनको क्षणभंगुरता का राग अलाप रहे हैं।

चित्र का पहला रुख तो मेरे लिए एक मदन स्वप्न है, दूसरा रुख एक भयकर सत्य । इस सत्य के सामने मेरी सारी रसिकता अन्तर्धान हो जाती है। मेरी सारी मौलिकता, सारी रचना-शीलता इसी दाम्पत्य के फन्दों से बचने में प्रयुक्त हुई है। जानता हूँ जिजाल के नीचे जाना है, मगर जाल जितना हो रंगीन और ग्राहक है, दाना उतना ही धातक और विषैला। इस जाल में पक्षियों को तरूपते और फड़फड़ाते देखता हूँ और फिर डाली पर जा बैठता हूँ।

लेकिन इधर कुछ दिनों से श्रीमती जी ने अविश्रान्त रूप से आग्रह करना शुरू किया है कि मुझे बुला लो। पहले जब छुट्टियों में जाता था, तो मेरा केवल 'कहाँ चलोगी' कह देना उनकी चित्त-शान्ति के लिए काफी होता था, फिर मैंने 'ममट है' कहकर उन्हें तसल्ली देनी शुरू की। इसके बाद गृहस्थ-जीवन की असुविधाओं से डराया ; किन्तु अब कुछ दिनों से उनका अविश्वास बढ़ता जाता है। अब मैंने छुट्टियों में भी उनके आग्रह के भय से घर जाना बन्द कर दिया है, कि कहीं वह मेरे साथ न चल खड़ी हो और नाना प्रकार के बहानों से उन्हें भाशकित करता रहता हूँ।

मेरा पहला बहाना पत्र-सम्पादकों के जीवन की कठिनाइयों के विषय में था। कभी बारह बजे रात को सोना नसीब होता है, कभी रतजगा करना पड़ आता है। पारे दिन गली गली ठोकरें खानी पड़ती हैं । इस पर तुर्रा यह है कि हमेशा सिर पर नंगी तलवार लटकती रहती है। न जाने का गिरफ्तार हो जाऊँ, कव समानत तलब हो जाय। खुफिया पुलौस की एक फौज हमेशा पीछे पड़ी रहती है। कभी बाधार में निकल जाता है, तो लोग उँगलियाँ उठाकर कहते हैं-वह जा रहा है अखबारवाला। मानो संसार में जितनी दैविक, आधिदैविक, भौतिक, आधिभौतिक बाधाएँ हैं, उनका उत्तरदायी मैं हूँ। मानों मेरा मस्तिष्क झूठी खबरें गढ़ने का कार्या- लम है। सारा दिन अफसरों को सलामी और पुलीस की खुशामद में गुजर जाता है। कानिस्टेबिलों को देखा और प्राण-पीड़ा होने लगी। मेरी तो यह हालत और हुक्काम