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आखिरी हीला


हैं कि मेरी सूरत से कांपते हैं। एक दिन दुर्भाग्यवश एक अँगरेज के बँगळे हो तरफ़ जा निकला। साहब ने पूछा -क्या काम करता है ? मैंने गर्व के साथ कहा --- पत्र का सम्पादक हूँ। साहब तुरन्त अन्दर घुस गये और कपाट मुद्रित कर लिये। फिर मैंने मेम साइन और बाबा लोगों को खिड़कियों से होकते देखा ;मानों कोई भयकर जन्तु है। एक थार रेलगाड़ी में सफर कर रहा था, साथ और भी कई मित्र थे इसलिए अपने पद का सम्मान निभाने के लिए सेकेण्ड क्लास का टिकट लेना पड़ा। गाड़ी में बैठा तो एक साहब ने मेरे सूटकेश पर मेरा नाम और पेशा देखते हो तुरत अपना सन्दूक खोला और रिवाल्वर निकालकर मेरे सामने उसमें गोलियों भरी जिसमें मुझे मालूम हो जाय कि वह मुझसे सचेत हैं। मैंने देवीजी से अपनी आर्थिक कठि- नाइयो को कमो चर्चा नहीं की ; क्योंकि मैं रमणियों के सामने यह ज़िक करना अपनी मर्यादा के विरुद्ध समझता हूँ। हालांकि मैं वह चर्चा करता, तो देवीजो की दया का अवश्य पात्र बन जाता।

मुझे विश्वास था कि श्रीमतीजी फिर यहां आने का नाम न लेंगी। मगर यह मेरा भ्रम था। उनके आग्रह पूर्ववत् होते रहे।

तब मैंने दूसरा बहाना सोचा। पहले बीमारियों के अड़े हैं। हर एक खाने-पीने की चोल में विष को शका। दूध में विष, घी में विष, फलो में विष, शाक-भाजी में विष, हवा में विष, पानी में विष यहाँ मनुष्य का जीवन पानी की लकीर है। जिसे आज देखो वह छल गायब। पच्छे-खासे बैठे हैं, हृदय की गति बन्द हो गई। घर से सर को निकले, मोटर से टकराकर सुरपुर की राह ली। अगर शाम को साङ्गो- पाङ्ग घर आ जाय, तो उसे भाग्यवान् समझो । मच्छर की आवाज कान में आई, दिल भैग, माखी नजर आई भार हाथ-पांव मुले । चूहा बिल से निकला और जान निकल गई। जिधर देखिए, यमराज को अमलदारी है। अगर मोटर और ट्राम से बचकर आ गये, तो मच्छर और मक्खा के शिकार हुए। बस, यही समम लो कि मौत हर दम सिर पर सेलता रहती है। रात-भर मच्छरों से लहता हूँ, दिन-भर मक्खियों से। नन्ही-सी जान को किन-किन दुश्मनों से मचाऊँ । साँस भी मुश्किल से लेता हूँ कि फहीं क्षय के कीटाणु फेफड़े न पहुंच जायें।

देवीजी को फिर भी मुम पर विश्वान-न भाया। दूसरे पत्र में भी वही आरजू थी। लिखा था, तुम्हारे पत्र ने एक और चिन्ता बढ़ा दो। अब प्रतिदिन पत्र लिखा