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मानसरोवर


करना, नहीं मैं एक न सुनूंगी और सीधे चली आऊँगी। मैंने दिल में कहा --- चलो, पत्ते छूटे।

मगर यह खटका लगा हुआ था कि न जाने कब उन्हें शहर आने को सनक सवार हो जाय । इसलिए मैंने तीसरा बहाना सोच निकाला। यहाँ मित्रों के मारे नाका-दम रहता है, आकर बैठ जाते हैं, तो उठने का नाम भी नहीं लेते, मानौ अपना घर बेच भाये है। अगर घर से टल जाओ, तो आकर बेधड़क कमरे में बैठ जाते. हैं और नौकर से जो चीज़ चाहते हैं, उधार मँगवा लेते हैं। देना मुझे पड़ता है। कुछ लोग तोहफ्तों पड़े रहते हैं, टलने का नाम ही नहीं लेते। रोज उनका सेवा- सत्कार करो, रात को थिएटर या सिनेमा दिखाओ, फिर सवेरे तक ताश मा शतरम खेली। अधिकाश तो ऐसे हैं, जो शराब के बगर जिन्दा ही नहीं रह सकते । अक्सर सो बीमार होकर आते हैं ; बल्कि अधिकतर बीमार ही भाते हैं। अब रोज डाक्टर को बुलाओ, सेवा शुश्रूषा करो, रात-भर सिरहाने बैठे पंसा मलते रहो, उस पर यह शिकायत भी सुनते रहो कि यहाँ कोई हमारी भात भी नहीं पूछता ! मेरी घड़ी महीनों से मेरी कलाई पर नहीं आई। दोस्तों के साथ जल्सों में शरीक हो रही है। अचान है, वह एक साल के पास है, कोट धूसरे साहब ले गये। जूते और एक बाबू ले उड़े। मैं वही रद्दी कोट और वही चमरौधा जूता पहनकर दत्तर आता हूँ। मित्रवृन्द ताड़ते रहते हैं कि कौन-सी नई वस्तु लाया। कोई चीज लाता हूँ, तो मारे डर के सन्दुक में बन्द कर देता हूँ। किसी की निगाह पढ़ जाय, तो कहीं-न-कही" न्योता खाने की धुन सवार हो जाय। पहली तारीख को वेतन मिलता है, तो चोरों की तरह दबे पांव घर आता हूँ कि कहीं कोई महाशय रुपयों को प्रतीक्षा में द्वार पर धरना अमाये न बैठे हो । मालूम नहीं, उनकी सारी आवश्यकताएँ पहली हो तारीख की बाट क्यों जौहती रहती हैं। एक दिन वेतन लेकर बारह बजे रात को लौटा। मगर देखा तो आधे दर्जन मित्र उस वक भी डटे हुए थे। माथा ठोक लिया। कितने होनहाने कर, उनके सामने एक नहीं चलती। मैं कहता हूँ, घर से पत्र आया है, माताजी बहुत बीमार है । जवाब देते हैं, मजी, बूढ़े इतनी अरद नहीं मरते। भरना ही होता, तो इतने दिन जीवित क्यों रहती। देख लेना, दो चार दिन में अच्छी हो बायगी, और भार मर भी जाय, तो वृद्ध जनों की मृत्यु का शोक ही क्या, वह तो और खुशी की बात है। कहता हूँ, कान का तकाजा हो रहा है। जवाब मिलता