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मानसरोवर

मगर पत्नीजी पर नागरिक जीवन का ऐसा जादू चढ़ा हुआ है । कि मेरा कोई बहाना उन पर असर नहीं करता। इस पत्र के जवाब में उन्होंने लिखा --- मुमसे बहाने करते हो, मैं हर्गिका न मानूंगी, तुम आकर मुझे ले जाओ।

आखिर मुझे पांचवा बहाना करना पड़ा । यह खोचेवालों के विषय में था। अभी विस्तर से उठने की नौबत नहीं आई कि कानों में विचित्र आवाजें आने लगीं। बाबुल के मीनार के निर्माण के समय ऐसी निरर्थक आवाजेंन आई होगी। यह खोचे- वालों को शब्द-क्रीड़ा है। उचित तो यह था, यह सोचेवाले ढोल मँजौरे के साथ लोगों को अपनी चीजों को और आकर्षित करते; मगर इन आँधी अश्लवालों को यह कहां सूझती है। ऐसे पैशाचिक स्वर निकालते हैं कि सुननेवालों के रोएँ खड़े हो जाते हैं। बच्चे माँ की गोद में चिमट जाते हैं। मैं भी रात को अक्सर चौंक पड़ता हूँ। एक दिन तो मेरे पड़ोस में एक दुर्घटना हो गई। ग्यारह बजे थे। कोई महिला बच्चे को दूध पिलाने उठी थी। एकाएक शो किसी खोचेवाले को मयका ध्वनि कानों में आई, तो चीख मारकर वितका उठी और फिर बेहोश हो गई। महानों की दवा- दारू के बाद अच्छी हुई। अब रात को कानों में कई डालकर सोती है। ऐसे काण्ड नित्य होते रहते हैं। मेरे हो मित्रों में ऐसे हैं, जो अपनी स्त्रियों को घर से नाये; मगर बेचारियां दूसरे ही दिन इन आवाजों से भयभीत होकर लौट गई।

श्रीमतीजी ने इसके जवाब में लिखा --- तुम समझते हो, मैं खोचेवालों की आवाज़ों से डर जाऊँगी। 'यहाँ गीदड़ों का हौवाना और उल्लुओं का चीखना सुन- कर तो डरती नहीं, खोचेवालों से क्या डरूँगी।

अन्त में मुझे एक ऐसा बहाना सूमा, जिसकी सफलता का मुझे पूरा विश्वास था। यद्यपि इसमें मेरी कुछ बदनामी थी। लेकिन बदनामी से मैं इतना नहीं करता जितना उस विपत्ति से।

फिर मैंने लिखा --- शहर वारीमजादियों के रहने की जगह नहीं। यहां की महरिया इतनी कटुभाषिणी है कि बातों का जवाब गालियों से देतो हैं और उनके बनाव-संचार का क्या पूछना भले घरों की स्त्रियाँ तो उनके ठाट देखकर हो शर्म से पानी-पानी हो जाती हैं। सिर से पांव तक सोने से लदी हुई, सामने से निकल जाती हैं, तो ऐसा मालूम होता है कि सुगन्धि को लपट निकल गई। गृहिणियाँ मे ठाट कहाँ से लायें सिन्हें तो और भी सैकड़ों चिन्ताएं हैं। इन महरियों को तो बनाव-