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तावान

छकौड़ीलाल ने दूकान खोली और कपड़े के थानों को निकाल-निकाल रखने लगा कि एक महिला दो स्वयंसेवकों के साथ उसकी दूकान को छेकने आ पहुँची। छकौड़ी के प्राण निकल गये।

महिला ने तिरस्कार करके कहा --- क्या लाला, तुमने सील तोड़ डाली न! मच्ची बात है, देखें तुम कैसे एक गिरह कपड़ा भी बेच लेते हो। भले आदमी, तुम्हें शर्म नहीं आती कि देश में यह संग्राम छिपा हुआ है और तुम विलायत्तो कपा बेच रहे हो, डूब मरना चाहिए ! औरतें तक घरों से निकल पड़ी है, फिर भी तुम्हें लज्जा नहीं आती। तुम जैसे कायर देश में न होते, तो उसकी यह अधोगति न . होती!

छकौड़ी ने वास्तव में कल कांग्रेस की सील तोड़ डाली थी। यह तिरस्कार सुनकर उसने सिर नीचा कर लिया। उसके पास कोई सफाई न थी, कोई जवाब न था। उसकी दुकान बहुत छोटी थी । लेहने पर कपड़े लाकर बेचा करता था। यही जोविका थी। इसी पर वृद्धा माता, रोगिणी स्त्री और पांच बेटे-बेटियों का निर्वाह होता था। जब स्वराज्य-संग्राम छिड़ा और सभी बाल विलायती कपड़ों पर मुहर लगवाने लगे, तो उसने भी मुहर लगवा ली । दस-पांच थान स्वदेशी कपड़ों के उधार लाकर दूकान पर रख लिये ; पर कपड़ों का मैल न था इसलिए विको कम होती थी। कोई भूला-भटका गाहक आ जाता, तो रुपया-आठ आने को विक्री हो जाती। दिन-भर दूकान में तपस्या-सी करके पहर रात को घर लौट जाता था। गृहस्थो का खर्च इस विक्री में क्या चलता। कुछ दिन कर्ज-वाम लेकर काम चलाया, फिर गहने-पाते की नौबत आई। यहां तक कि अब घर में कोई ऐसी चोजन बची, जिससे दो-चार महीने पेट का भूत सिर से टाला जाता । उधर स्त्री का रोग असाध्य होता जाता था। बिना किसी कुशल डाक्टर को दिखाये काम न चल सकता था। इसी चिन्ता में डूब- उतरा रहा था कि विलायती कपड़े का एक माहक मिल गया, जो एकमुश्त दस रुपये का माल लेना चाहता था। इस प्रलोभन को वह न रोक सका।