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मानसरोवर


उसका हृदय उस दशा को पहुँच गया था, जब एक चोट भी चिनगारियाँ पैदा करता है। तिनककर बोला-ताचान तो मैं न दे सकता हूँ, न दूंगा। हो, दुकान भले हो बन्द कर हूँ । और दूकान भी क्यों बन्द करें। अपना माल है, जिस जगह चाहूँ, बेच सकता हूँ। अभी जाकर थाने में लिखा दूं, तो बायकाट कमेटी को भागने की रोह न मिले । मैं जितना ही दबता हूँ, उतना हो आप लोग दबाती है।

महिला ने सत्याग्रह-शक्ति के प्रदर्शन का अवसर पाकर कहा-हो, जरूर पुलीस में रपट करो। मैं तो चाहती हूँ। तुम उन लोगों को यह धमकी दे रहे हो, ओ तुम्हारे ही लिए, अपने प्राणों का बलिदान कर रहे हैं। तुम इतने स्वार्थान्ध हो कि अपने स्वार्थ के लिए देश का अनहित करते तुम्हें लज्जा नहीं आती! उस पर मुझे पुलीस की धमकी देते हो। वायकाट-कमेटी जाय या रहे; पर तुम्हें तावान देना पड़ेगा ; अन्यथा दूकान बन्द करनी पड़ेगी।

यह कहते-कहते महिला का चेहरा गर्व से तेजवान हो गया। कई आदमी जमा हो गये और सम-के-सब छकौड़ी को बुरा भला कहने लगे। छकौड़ी को भी मालूम हो गया कि पुलीस की धमकी देकर उसने बहुत बड़ा अविवेक किया है । लज्जा और अपमान से उसकी गरदन झुक गई और मुंह जरा सा निकल आया। फिर उसने गर- दन नहीं उठाई।

सारा दिन गुजर गया और धेले की भी बिक्रो न हुई। आखिर हारकर उसने दुकान बन्द कर दी और घर चला आया।

दूसरे दिन प्रातकाल बायकाट-कमेटो ने एक स्वयसेवक द्वारा उसे सूचना दे दी कि कमेटी ने उसे १०१) का दण्ड दिया है।

( ३ )

छकौड़ी इतना जानता था कि कांग्रेस की शक्ति के सामने वह सर्वथा अशक है। उसको जान से जो धमको निकल गई थी, उस पर घोर पश्चात्ताप हुआ, लेकिन तीर कमान से निकल चुका था। दुकान खोलना व्यर्थ था। वह जानता था. उसकी धेले की भी बिक्री न होगी। १०१) देना उसके बूते से बाहर को बात थी। दो-तोन दिन तो वह चुपचाप बैठा रहा। एक दिन रात को दूकान खोलकर सारी गांठ पर उठा लाया और चुपके-चुपके बेचने लगा। पैसे को चीन घेले में लुटा रहा था और वह भी उधार । जीने के लिए कुछ आधार तो चाहिए !