मगर उसकी यह चाल भी काग्रेस से छिपी न रहो। चौथे हो दिन गोइन्दों ने काग्रेस को खबर पहुँचा दी। उसी दिन तीसरे पहर छकौड़ो के घर को पिकेटिंग शुरू हो गई। अबकी सिर्फ पिकटिंग शुरू न थी, स्यापा भी था । पाँच-छः स्वय- सेविकाएँ और इतने ही स्वयसेवक द्वार पर स्यापा करने लगे।
छकौड़ो आंगन में सिर झुकाये खड़ा था। कुछ अक्ल काम न करती थी, इस विपत्ति को कैसे टालें। रोगिणी स्त्रो सायबान में लेटी हुई थी, वृद्धा माता उसके सिर- हाने बैठी पहा मल रही थी और बच्चे बाहर त्यापे का आनन्द उठा रहे थे।
स्त्री ने कहा --- इन वो पूछते नहीं, खायें क्या ?
छकौड़ी बोला --- किससे पू जब कोई सुने भी ।
'जाकर कांग्रेसवालों से कहो, हमारे लिए कुछ इन्तजाम कर दें, हम अभी कपड़े को जला देंगे, ज्यादा नहीं, २५) ही महोना दे दें।'
'वहाँ भी कोई न सुनेगा।'
'तुम जाओ भो, या यही से कानून बघारने लगे।'
'क्या जाऊँ, उलटे और लोग हँसी उड़ायेंगे। यहाँ तो जिसने दुकान खोली, उसे दुनिया लखपती ही समझने लगती है।'
'तो खड़े-खड़े यह गालियाँ सुनते रहोगे?'
'तुम्हारे कहने से कहो चला जाऊँ ; मगर वहाँ ठठोली के सिवा और कुछ न होगा।'
'हाँ, मेरे कहने से जाओ। जब कोई न सुनेगा, तो हम भी कोई और राह- निकालेंगे।'
उकौड़ी ने मुंह लटकाये कुरता पहना और इस तरह कांग्रेस दफ्तर चला, जैसे कोई मरणासन्न रोगी को देखने के लिए वैद्य को बुलाने जाता है।
( ४ )
कांग्रेस कमेटी के प्रधान ने परिचय के बाद पूछा- तुम्हारे ही ऊपर तो बाय- काट-कमेटी ने १०१) का तावान लगाया है ?
'जी हाँ।'
'तो रुपया कर दोगे।'
'मुझमें तावान देने की सामर्थ्य नहीं है। मापसे मैं सत्य कहता हूँ, मेरे घर में