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मानसरोवर


मगर आज एक ऐसौ बात हो गई, जो इस जाति को और युवतियों के लिए चाहे गुप्त संदेश होती, मुलिया के लिए हृदय का शुल थी। प्रभात का समय था, पवन आम को और की सुगन्धि से मतवाला हो रहा था, आकाश पृथ्वी पर सोने की वर्षा कर रहा था। मुलिया सिर पर झौआ रखे घास छीलने चली, तो उसका गेहुभा रंग प्रभात को सुनहरी किरणों से कुन्दन की तरह दमक उठा । एकाएक युवक चैनसिंह सामने से आता हुआ दिखाई दिया। भुलिया ने चाहा कि कतराकर निकल जाय । मगर चैनसिंह ने उसका हाथ पका लिया और बोला- मुलिया, तुझे क्या मुझ पर जरा भी दया नहीं आती ?

मुलिया का वह फूल सा खिला हुआ चेहरा ज्वाला को तरह पहक ठा। वह जरा भी नहीं डरी, ख़रा भी न झिसकी मौआ जमीन पर गिरा दिया, और बोली --- मुझे छोड़ दो, नहीं मैं चिल्लाती हूँ।

चैनसिंह को आप जीवन में एक नया अनुभव हुआ। नोची बातों में रूप-माधुर्य का इसके सिवा और काम ही क्या है कि वह ऊँची जातिवालों का खिलौना बने । ऐसे कितने ही मा उसने जीते थे ; पर आज मुलिया के चेहरे का वह रंग, उसका यह क्रोध, वह अभिमान देखकर उसके छक्के छूट गये। उसने लज्जित होकर उसका हाथ छोड़ दिया । मुलिया वेग से आगे बढ़ गई । संघर्ष की गरमी में चोट की व्यथा नहीं होतो, पीछे से शौस होने लगती है । मुखिया जब कुछ दूर निकल गई, तो क्रोध और भय तथा अपनी बेकसी का अनुभव करके उसकी आँखों में आँसू भर आये। उसने कुछ देर जन्त किया। फिर सिस-सिसककर रोने लगी। अगर वह इतनो गरीब न होती, तो किसी की मजाल थी कि इस तरह उसका अपमान करता! वह रोती जाती थी और पास छोलती जाती थी। महावीर का क्रोध वह जानती थी। मगर उससे कह दे, तो वह इस ठाकुर के खून का प्यासा हो जायगा। फिर न जाने क्या हो ! इस खयाल से उसके रोएँ खड़े हो गये। इसीलिए उसने महावीर के प्रश्नों का कोई उत्तर न दिया।

( २ )

दूसरे दिन मुखिया घास के लिए न गई। सास ने पूछा --- तू क्यों नहीं जाती, और सब तो चली गई।

मुलिया ने सिर झुकाकर कहा --- मैं अकेली न जाऊंगी ।