पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/२८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

२९३
घासवाली

सास ने बिगड़कन कहा --- अकेले क्या तुझे बाघ उठा ले जायगा ?

मुलिया ने और भी सिर झुका लिया और दबी हुई आराम से बोली --- खब मुझे छेड़ते हैं।

सास ने डाटा, न तू औरों के साथ जायगी, न अकेली बायपी, तो फिर जायगो कैसे ? साफ-साफ यह क्यों नहीं कहती कि मैं न जाऊँगी । तो यहा मेरे घर में रानी बनके विवाह न होगा। किसो को चाम नहीं प्यारा होता, काम प्यारा होता है। तू बड़ो सुन्दर है तो तेरो सुन्दरता लेकर चाई। उठा मावा और घास ला !

द्वार पर नीम के दरख्त के साये में महापौर खड़ा घोड़े को मल रहा था । उसने मुलिया को रोनी सूरत बनाये जान देखा पर कुछ बोल न सका । उसका वश चलता तो मुलिया को कर्जे में बिठा लेता, माखों में छिपा लेता। लेकिन बाडे का पेट भरना तो जरूरी था घास मोल लेकर खिलाये, तो बारदाने रोज से इस न पड़े। ऐधी मजदूरी ही कौन होता है । मुश्किल से डेढ़-दो रुपये मिलते हैं, वह भो कभी मिले, कभी न मिले । जब से यह सत्यानाशा लारियाँ चलने लगे हैं, इक्बालों को बधिया चेठ गई है। कोई संत भी नहीं पूछता । महाजन से डेढ़ सौ रुपये उधार लेकर इका और घोड़ा खरोदा था मगर लारियों के आगे इक्के को कौन पूछता है। महाजन का सूद भी तो न पहुंच सस्ता था ! मुळ का कहना ही क्या । कारो मन से बोला- नमन हो तो रहने दे, देखो जायगी।

इस दिलजोई से मुलिया निहाल हो गई। बोली --- घोड़ा खायेगा क्या !

आज उसने कल का रास्ता छोड़ दिया, और खेतों की मेड़ों से होती हुई चली। बार बार सतर्क आंखों से इधर-उधर ताकती आती थी। दोनों तरफ जख के खेत खड़े थे। जरा भी खड़खड़ाहट इती, उसका सन से हो जाता। कहीं कोई ऊख में छिपा न मंठा हो; मगर कोई नई बात न हुई। कख के खेत निकल गये, आमों का मात्र निकल गया, सिचे हुए खेत नजर आने लगे। दूर के कुएँ पर पुर चल रहा था। खेतों की मेड़ों पर हरी हरा पास जमा हुई थी। मुलिया का जो ललचाया । यहाँ आध घण्टे में जितनी पाद छिल सकता है, उतनी सूखे मैदान में दोपहर तकन छिल सकेगी। यहाँ देखता ही झोन है। काई चिल्लायेगा, तो चलो जाऊंगा। वह बैठकर घास छीलने लगी, और एक घण्टे में उसका झावा आधे से ज्यादा भर गया।

१९