पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/२८४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

२९५
घासवाली

मुलिया ने सिर उठाकर उसकी ओर देखा। उसकी लज्जा न जाने का गायव हो गई। चुसते हुए शब्दों में होली-तुमसे एक बात कहू, बुरा तो न मानोगे ? तुम्हारा विवाह हो गया है या नहीं ?

चैनसिंह ने वो ज़बान से कहा --- व्याह तो हो गया है, लेकिन व्याह क्या है, खिल्बाइ है।

मुलिया के होठों पर अवहेलना को मुसकिराहट मलक पड़ी, बोली --- फिर भी मगर मेश आदमी तुम्हारी औरत से इसी तरह बातें करता, तो तुम्हें कैसा लगता? तुम उसकी गर्दन काटने पर तैयार हो जावे कि नहों ? बोलो ! क्या समझते हो कि महाबोर चमार है तो उसकी देह में लहू नहीं है, उसे लज्जा नहीं है, अपने मर्याद का विचार नहीं है ? मेरा रूप-रंग तुम्हें भाता है। क्या घाट के किनारे मुझसे कहाँ सुन्दर औरतें नहीं घूमा करतो? मैं उनके तलवों को बराबरी भी नहीं कर सकती। तुम उनमें से किसी से क्यों नहीं दया मांगते ? क्या उनके पास दया नहीं है। मगर वहाँ तुम न जाओगे, क्योंकि वहाँ आते तुम्हारो छाती दहलती है। मुझसे दया मांगते हो, इसलिए न कि मैं चमारिन हूँ, नीच जाति हूँ और नोच जाति का ओरत रा-सो घुड़की-धमकी या जरा-से लालच से तुम्हारी मुट्ठी में आ जायगी। शितना सस्ता सौदा है । ठाकुर हो न, ऐसा सस्ता सौदा क्यों छोड़ने लगे।

चैनसिंह लज्जित होकर बोला --- मूला, यह बात नहीं है। मैं सच कहता हूँ, इसमें ऊँच नीच की बात नहीं है। सब आदमो बराबर हैं . मैं तो तेरे चरणों पर सिर रखने को तैयार हूँ।

मुलिया --- इसलिए न कि जानते हो, मैं कुछ कर नहीं सकती। जाकर किसो खतरानी के चरणों पर सिर रखो, तो मालूम हो कि चरणों पर घिर रखने का क्या फल मिलता है । फिर यह सिर तुम्हारी गर्दन पर न रहेगा।

चैनसिंह मारे शर्म के प्रमोन में गया जाता था। उसका मुंह ऐसा सूख गया था, मानो महोनी की बीमारी से उठा हो। मुंह से बात न निकलता थी । मुशिया एतनी वाक्पट है, इसका उसे गुमान भी न था।

मुलिया फिर बोली --- मैं भी रोज बाजार जाती हूँ। बड़े-बड़े पों का हाल मानतो हूँ। मुझे किसी बड़े घर का नाम बता दो, जिसमें कोई साईस, कोई कोचवान, कोई वार, कोई पाहा, कोई महाराज न घुसा बैठा हो ? यह सब बड़े घरों को लीला