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घासवाली

( ४ )

एक दिन चैनसिंह को किसी काम से कचहरी जाना था। पाँच मील का सफर था । यों तो वह बराबर अपने घोड़े पर जाया करता था; पर आन धूप बो तेज हो हो यो, सोचा, एक्के पर चला चलूँ। महावीर को कहला भेजा, मुझे लेते जाना। कोई नौ बजे महाबीर ने पुकारा । चैनिसह तैयार बैठा था। चटपट एक्के पर वठ गगा; मगर घोड़ा इतना दुबला हो रहा था, एक्के को गद्दों इतनी मैलो और फट. हुई, सारा सामाम इतना रही कि चैनधिह को उस पर बैठते शर्म आई। पूछा-यह सामान क्यों बिगड़ा हुआ है महावीर ? तुम्हारा घोड़ा तो इतना दुबला कमी न था, आजकल सवा- रिया कम है क्या ? महाबोर ने कहा --- नहीं मालिक, सवारियों काहे नहीं है, मगर लारियों के सामने एक्के को कौन पूछता है। कहाँ दो, ढाई, तीन की मजूरी करके घर लौटता था, कहां भव मीस आने पैसे भी नहीं मिलते। क्या जानवर का खिलाज क्या आप खाऊँ ? मी विपत्ति में पड़ा हूँ । सोचता हूँ, एकका-घोसा वैच-बाचकर आप लोगों की मजूरी कर लूं, पर कोई हक नहीं लगता। ज्यादा नहीं, तो बारह आने तो घोड़े ही को चाहिए, घास ऊपर से। जब अपना ही पेट नहीं चलता तो जानवर को कौन पूछे। चैनसिंह ने उसके फटे हुए कुरखे को ओर देखकर कहा--दो-चार बोधे को खेती क्यों नहीं कर लेते ?

महावीर सिर झुकाकर बोला --- खेती के लिए बड़ा पौरख चाहिए मालिक। मैंने तो यही सोचा है कि कोई गाहक लग जाय, तो एक्के को औने-पौने निकाल , फिर घास छीलकर बाजार ले जाया करूँ। आजकल सास-पतोह दोनों घास छोलतो है । तब जाकर दस-बारह आने पैसे नसोध होते हैं ।

चैनसिंह ने पूछा --- तो खुड़िया बाजार जातो होगी ?

महावीर लजाता हुआ बोला --- नहीं भैया, वह इतनी दूर कहाँ चल सकती है घरवाली चली जाती है। दोपहर तक घास हीलती है, तीसरे पहर बाजार जाती है। वहाँ से घड़ी रात गये लौरती है। इलकान हो जाती है भैया, मगर क्या करू, तकदीर से क्या जोर।

चैनसिंह कचहरी पहुँच गये, और महावीर सवारियों की टोह में इधर-उधर एक्के को घुमाता हुआ शहर की तरफ चला गया ! चैनसिह ने उसे पांच बजे आने को कह दिया।