करो । हाँ, देखो, मुलिया से इस बात को भूलकर भी चर्चा न करना। क्या फायदा!
कई दिनों के बाद सन्ध्या समय मुलिया चैनसिंह से मिली। चैनसिंह असामियों से मालगुजारी वसुल करके घर की ओर लपका जा रहा था कि उसी जगह जहाँ उसने मुलिया की बाँह पकड़ी थी, मुलिया की आवाफा कानों में आई। उसने ठिठककर पोछे देखा, तो मुलिया दौड़ी चली आ रही थी। बोला --- क्या है, मूला ! क्यों दौड़ती हो, मैं तो खड़ा हूँ?
मुलिया ने हांफते हुए कहा --- कई दिन से तुमसे मिलना चाहती थी। आज तुम्हें आते देखा, तो दौड़ी। अब मैं घास बेचने नहीं जातो ।
चैनसिंह ने कहा --- बहुत अच्छी बात है।
'क्या तुमने मुझे कभी घास बेचते देखा है ?'
'हां, एक दिन देखा था । क्या महावीर ने तुझसे सब कह डाला ? मैंने तो सना कर दिया था।
'वह मुझसे कोई बात नहीं छिपाता।'
दोनों एक क्षण चुप खड़े रहे। किसी को कोई बात न सूझती थी। एकाएक मुलिया ने मुसकिराकर कहा --- यही तुमने मेरी बाँह पकड़ी थी।
चैनसिंह ने लजित होकर कहा --- उसको भूल जाओ मूला! मुझ पर न जाने कौन भूत सवार था।
मुलिया गद्गद कण्ठ से बोली --- उसे क्यों भूल जाऊँ ? उसो बांह गहे की लाज तो निभा रहे हो ! गरीबी आदमी से जो चाहे, करावे। तुमने मुझे बचा लिया ! फिर दोनों चुप हो गये।
जरा देर के बाद मुलिया ने फिर कहा --- तुमने समझा होगा, मैं हँसने बोलने में मगन हो रही थी?
चैनसिंह ने बलपूर्वक कहा --- नहीं मुलिया, मैंने एक क्षण के लिए भी यह नहीं समझा।
मुलिया मुसकिराकर बोली --- मुझे तुमसे यही आशा थी, और है।
पवन सींचे हुए खेतों में विश्राम करने जा रहा था, सूर्य निशा को गोद में विश्राम करने जा रहा था, और उस मलीन प्रकाश में चैनसिंह मुलिया को विलोन होतो हुई रेखा को खड़ा देख रहा था।