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मानसरोवर


जाता । मैं पूछती हूँ, आखिर आप टुटपूँजियों की दुकान पर जाते ही क्यों हैं ? क्या उनके पालन-पोषण का ठेका तुम्ही ने लिया है ? आप फरमाते हैं, मुझे देखकर सब-के-सब बुलाने लगते हैं। वाह क्या कहना है । कितनी दूर की बात कही है जरा इन्हें बुला लिया और खुशामद के दो-चार शब्द सुना दिये, थोड़ो-खो स्तुति कर दी, बस सापका मिजाज आसमान पर जा पहुंचा। फिर इन्हें सुधि नहीं रहती कि यह कूड़ा-करकट बोध रहा है या क्या । पूछती हूँ, तुम उस रास्ते से जाते ही क्यों हो ? क्यों किसी दूसरे रास्ते से नहीं जाते ? ऐसे उठाईगोरों को मुह हो क्यों लगाते हो ? इसका कोई जवाब नहीं । एक चुप सौ बाधाओं को हरती है।

एक बार एक गहना बनवाने को दिया। मैं तो महाशय को जानती थी । इनसे कुछ पुङगा व्यर्थ सममता । अपने पहचान के एक सोनार को बुला रही थी। सयोग से आप भी विराजमान थे। बोले --- यह सम्प्रदाय विश्वास के योग्य नहो, धोखा खाओगी। मैं एक सुनार को जानता हूँ, मेरे साथ का पढ़ा हुआ है, परसों साथ-साथ खेले हैं, वह मेरे साथ चालबाजी नहीं कर सकता। मैंने भी समझा, अब इनका भित्र है और वह भी बचपन का, तो कहाँ तक दोस्ती का हक न निभायेगा। सोने का एक आभूषण और सौ रुपये इनके हवाले किये । इन भलेमानस ने बह आभूषण और रुपये न जाने किस बेईमान को दे दिये कि बरसों के मझट के बाद जब चीज़ बनकर आई, तो आठ आने ताबा और इतनी भहो कि देखकर घिन लगती थो । बरसों की अभिलाषा धूल में मिल गई। रे।-पीटकर वठ रहो । ऐसे-ऐसे वफादार तो इनके मित्र हैं, जिन्हें मित्र की गरदन पर छुरी फेरने में भी सोच नहीं। इनकी दोस्तो भी उन्हीं लोगों से है, जो ज़माने भा के नट्ट, गिरहट्ट, लंगोटो में फ्राय खेलनेवाले, फाकेमस्त हैं, जिनका उद्यम ही इन-जैसे आँख के अन्धों से दोस्तो गांठना है । नित्य हो एक-न-एक -महाशय उधार मांगने के लिए सिर पर सवार रहते हैं और बिना लिये गला नहीं छोड़ते । मगर ऐसा कभो न हुआ कि किसी ने रुपये चुकाये हों। आदमो एक बार -खोकर सोखता है, दो बार खोकर सीखता है, किन्तु यह भलेमानस हमार बार खोकर भी नही सीखते। जब कहती हूं, रुपये तो दे आये, अब मांग क्यों नहीं लाते ? क्या “मर गये तुम्हारे वह दोस्त ? तो वस बगले झांककर रह जाते हैं। अपने मित्रों को -सुखा जवाब नहीं दिया जाता। खर, सूखा जवाब न दो। मैं भी नहीं कहती कि दोस्तों से बेमुरौवती रो ; मगर चिकनी-चुपड़ी बातें तो बना सकते हो, बहाने तो