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मानसरोवर

एक दिन जाने कह' से एक बांगडू को पकड़ लाये। उसको सूरत कहें देती थी कि कोई जांगलू है ; मगर आपने उसका ऐसा बखान किया कि क्या कहूँ। बड़ा होशियार है, बड़ा आज्ञाकारी, परले सिर का मेहनती, गज़ब का सलीकेदार और बहुत हो ईमान- दार। खैर, मैंने उसे रख लिया। मैं बार-बार क्यों इनकी बातों में आ जातो हूँ, इसका मुझे स्वयं आश्चर्य है । यह यादमी केवल रूप से आदमी था। भादमियत के और कोई लक्षण उसमें न थे। किसी काम की तमीज़ नहीं। बेईमान न था; पर गधा अव्वल दरजे का। बेईमान होता, तो कम-से-कम इतनो तस्कीन तो होती कि खुद खा जाता है । अभागा दूकानदारों के हाथों लुट जाता था। दस तक की गिनती उसे न आती थी। एक रुपया देकर बाजार भेजू, तो संध्या तक हिसाब न समझा सके। क्रोध पी-पीकर रह जाती थी। रक्क खौलने लगता था कि दुष्ट के कान उखाः यूँ; मगर इन महाशय को उसे कभी कुछ कहते नहीं देखा, डाँटना तो दूर की बात है । आप नहा-धोकर धोती छौट रहे हैं और वह दूर बैठा तमाशा देख रहा है । मैं तो बचा का खून पी जाती, लेकिन इन्हें जरा सी ग्रम नहीं। जब मेरे डारने पर धोती छोटने जाता भी, तो आप उसे समीप न आने देते। बस, उसके दोर्षों को गुण बनाकर दिखाया करते थे और इस प्रयास में सफल न होते, तो उन दोषों पर परदा डाल देते थे। मूर्ख को मार लगाने की तमीज़ न थी। मरदाना कमरा हो तो सारे पर में ढङ्ग का एक कमरा है । उसमें झाडू लगाता, तो इधर की चीज़ उधर, ऊपर के नीचे; मानों स्मरे में भूकम्प आ गया हो! और गर्द का यह हाल, कि सांस लेना कठिन ; पर आप शान्तिपूर्वक कमरे में बैठे हैं, जैसे कोई बात ही नहीं। एक दिन मैंने उसे खूब डांटा --- कल से ठीक-ठीक झाडू न लगाई तो कान पकड़कर निकाल दूंगी । सवेरे सोकर उठी, तो देखती हूँ, कमरे में माडू लगी हुई है और हरेक चीज़ करीने से रखी हुई है । गर्द-गुबार का नाम नहीं। मैं चकित होकर देखने लगी, तो आप हँसकर बोले --- देखती क्या हो; आज घूरे ने बड़े सवेरे उठकर झाडू लगाई है। मैंने सममा दिया। तुम ढङ्ग तो बताती नहीं, उलटे डाँटने लगती हो।

मैंने समझा, खैर, दुष्ट ने कम-से-कम एक काम तो सलीके से किया। अब रोज कमरा साफ सुथरा मिलता। पूरे मेरी दृष्टि में विश्वासपात्र बनने लगा। सयोग की बात ! एक दिन मैं घरा मामूल से सवेरे उठ बैठो और कमरे में भाई तो क्या देखती हूँ कि घूरे द्वार पर खड़ा है और आप तन-मन से कमरे में झाड़ू लगा रहे