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गिला


हैं। मेरी आँखों में खून उतर आया। उनके हाथ से झाडू छोनकर धूरे के सिर पर जमा दी। हरामखोर को उसो दम निकाल बाहर किया । आप फरमाने लगे उसका अहोना तो चुका दो। वाह री समझ ! एक तो काम न करे, उस पर आँखें दिखाये। उस पर पूगे मजूरी भी चुका दूं। मैंने एक कौड़ो भी न दो। एक कुरता दिया था, यह भी छीन लिया। इस पर जड़ भरत महोदय मुझसे कई दिन रूठे रहे । घर छोड़कर भागे जाते थे। बड़ी मुश्किलों से रुके । ऐसे-ऐसे भाँद भी ससार में बड़े हुए हैं। मैं न होतो, तो शायद इन्हें अब तक किसी ने बाजार में बेच लिया होता।

एक दिन मेहतर ने उतारे कपड़ों का सवाल किया । इस बेकारी के प्रमाने में फालतू कपड़े तो शायद पुलीसवालों या रइसों के घर में हों, मेरे घर में तो जरूरी कपड़े भी काफी नहीं। आपका वस्त्रालय एक बकची में भा जायगा, जो डाक के पार- साल से कहीं भेजा जा सकता है। फिर इस साल जाड़ों के कपड़े बनवाने की नौबत न आई । पैसे नज़र नहीं आते, कपड़े कहाँ से बनें । मैंने मेहतर को साफ जवाब दे दिया । कड़ाके का जादा पड़ रहा था, इसका अनुभव मुझे कम न था । परीयों पर क्या बीत रही है, इसका भी मुझे ज्ञान था , लेकिन मेरे या आपके पास खेद के सिवा इसका और क्या इलाज है। जब तक समान का यह संगठन रहेगा, ऐसो शिकायतें पैदा होतो हे गी। अब एक-एक अमौर और रईस के पास एक-एक मालगाड़ी कपड़ों से भरी हुई है, तो फिर निर्धनों को क्यों न नग्नता का कष्ट उठाना पड़े। खैर, मैंने तो मेहतर को जवाब दे दिया। आपने क्या किया कि अपना कोट उठादर उसकी भेंट कर दिया । मेरी देह में आग लग गई। मैं इतनी दानशील नहीं हूँ कि दूसरों को खिलाकर आप सो पहूँ, देवता के पास यही एक कोट था। आपको इसको जरा भो चिन्ता न हुई कि पहनेंगे क्या ? यश के लोभ ने जैसे -शुद्धि हो हर ली । मेहतर ने सलाम किया, दुआएँ दो और अपनी राह लो। आप कई दिन सी से ठिठुरते रहे। प्रात काल घूपने जाया करते थे, वह बन्द हो गया। ईश्वर ने उन्हें हृदय भी एक विचित्र प्रकार का दिया है। फटे-पुराने कपड़े पहनते आपको जरा भी सकोच नहीं होता। मैं तो मारे लाश के गड़ जाता है। पर आपको -सारा भी फिक्र नहीं । कोई हंसता है, तो इसे, आपको बला से । अन्त में जब मुझसे न देखा गया, तो एक बोट बनवा दिया। जो तो जलसा था कि खूब सर्दी खाने दूं।