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मानसरोवर


पर डरी कि कहीं वोमार पड़ मायँ तो और बुरा हो, आखिर काम तो इन्हीं को करना है।

महाशय अपने दिल में समझते होंगे, मैं कितना विनीत, कितना परोपकारी हूँ। शायद इन्हें इन बातों का गर्व हो । मैं इन्हें परोपकारी नहीं समझती, न विनीत ही समझती हूँ। यह जड़ता है, सीधी-सादी निरीहता । जिस मेहतर को आपने अपना कोट दिया, उसे मैंने कई बार रात को शराब के नशे में मस्त झूमते देखा है और आपको दिखा भी दिया है । तो फिर दूसरों को विवेक होनता को पुरौती हम क्यों करें ? अगर आप विनीत और परोपकारी होते, तो घरवालों के प्रति भी तो आपके में कुछ उदारता होती । या सारी उदारता बाहरवालो हो के लिए सुरक्षित है? घरवालों को उसका अल्पांच भी न मिलना चाहिए ? मेरी इतनी अवस्था बीत गई। पर इस भले आदमी ने कभी अपने हाथों से मुझे एक उपहार भी न दिया। बेशक मैं जो चीज़ बाजार से मंगवाऊँ, उसे लाने में इन्हें जरा भो आपत्ति नहीं, बिलकुल सज्र नहीं ; मगर रुपये मैं दे दूँ , यह शर्त है। इन्हें खुद कभी यह उमग नहीं होती। यह मैं मानती हूँ कि बेचारे अपने लिए भी कुछ नहीं लाते। मैं जो कुछ मंगवा द, उसी पर सतुष्ट हो जाते हैं, मगर आखिर आदमी कभी-कभी शौक को चीजें चाहता ही है। अन्य पुरुषों को देखतो हुँ, स्त्री के लिए तरह-तरह के गहने, भौति-भांति के कपड़े, शौक-स्गिार की वस्तुएं लाते रहते हैं। यहाँ सर व्यवहार का निषेध है। बच्चों के लिए भी मिठाइयां, खिलौने, बाजे शायद जीवन में एक बार भी न लाये हो। शपथ-सो खा ली है। इसलिए मैं तो इन्हें कृष्ण कहूँगी, अरसिक कहूँगी, हृदय-शुन्य कहूँगो, उदार नहीं कह सकती। दूसरों के साथ इनका जो सेवा-भाव है उसका कारण है, इनका यश-लोभ और व्यावहारिक अज्ञानता । आपके विनय का यह हाल है कि जिस दफ्तर में आप नौकर हैं, उसके किसी अधिकारी से आपका मेल. जोल नहीं। अफसरों को सलाम करना तो आपकी नीति के विरुद्ध है, नजर या डालो तो दूर की बात है। और तो और, कभी किसी अफसर के घर नहीं जाते। इसका खमियाजा आप न उठाएँ, तो कौन उठाये । औरों को रिआयती छुट्टयां मिलती हैं। आपका वेतन कटता है, औरों की तरकियां होती हैं, आपको कोई पूछता भी नहीं, हाजिरी में पांच मिनट को भी देर हो जाय, तो जवाब हो जाता है। बेचारे जो तोड़कर काम करते हैं, कोई बड़ा कठिन काम आ जाता है, तो इन्हीं के सिर मँढ़ा