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मानसरोवर


कहूँ । बाहर से आते हैं तो खुश- खुश ! कोई-न-कोई शिगूफा लिये हुए। मेरी खुशामद भी खूब हो रही है, मेरे मैकेवालों को प्रशसा भी हो रही है, मेरे गृह-प्रबन्ध का बखान भी असाधारण रीति से किया जा रहा है। मैं इन महाशय की चाल समझ रही थी। यह सारी दिलजोई केवल इसलिए थी कि श्रीमान् के भाई साहय के विषय में कुछ पूछ न बैहूँ । सारे राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, आचारिक प्रश्नों को मुझसे व्याख्या को जाती थी, इतने विस्तार और गवेषणा के साथ कि विशेषज्ञ भी लोहा मान जाय । केवल इसलिए कि मुझे वह असम उठाने का अवसर न मिले ; लेकिन मैं भला कंत्र चूकनेवाली थी। जब पूरे दो सप्ताह गुजर गये और बोमे के रुपये भेजने को मिति, मौत की तरह सिर पर सवार हो गई, तो मैंने पूछा --- क्या हुआ, तुम्हारे भाई साहब ने श्रीमुख से कुछ फरमाया या अभी तक पत्र नहीं पहुँचा ? माखिर घर की जायदाद में हमारा भी कुछ हिस्सा है या नहीं। या हम किसी काँडो-दासी की सन्तान है ? पांच सौ रुपये साल का नफा तो दस साल पहले था। अब तो एक हजार से कम न होगा; पर हमें कभी एक मंमी कौड़ी भी नहीं मिली। मोटे हिसाब से हमें दो हजार मिलना चाहिए। दो हज़ार न हो, एक हजार हो, पाँच सौ हो, ढाई सौ हो, कुछ न हो, तो बीमा के प्रीमियम- भर को तो हो। तहसीलदार साहम की आमदनी हमारी भामदनी की चौगुनी है, रिश्वते भी लेते हैं, तो फिर हमारे रुपये क्यों नहीं देते ? भाप हे-हें हाँ हाँ करने लगे। कहने लगे --- वह बारे घर की मरम्मत करवाते हैं, बन्धु-बन्धियों का स्वागत-सत्कार करते हैं, नातेदारियों में भेंट-भौट भेजते हैं। और कहाँ से लायें मो हमारे पास भेजें ? वाह री बुद्धि ! मानो जायदाद इसी लिए होती है कि उसको कमाई सौ में खर्च हो जाय। इस भले आदमी को बहाने गढ़ने भी नहीं आते। मुमसे पूछते, मैं एक नहीं, हज़ार बता देती, एक-से-एक बढ़कर --- कह देते, घर में भाग लग गई, सब कुछ स्वाहा हो गया, या बोरी हो गई, तिनका तक न बचा, या दस हजार का भनाज भरा था, उसमें घाटा रहा, या किसी से फौजदारी हो गई, उसमें दिवाला पिट गया। आपको सूची भी तो लचर-सी बात ! तकदीर ठोककर बैठ रही। पड़ोस की एक महिला से रुपये कर्ज लिये, तग जाकर काम चलो। फिर भी आप भाई-भतीजो की तारीफ के पुल बांधते हैं, तो मेरे शरीर में आग लग जाती है। ऐसे कौरवों से ईश्वर बचाये।