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मानसरोवर


दहेज की बुराइयों पर लेकचर दे सकते हैं । लेकिन मिलते हुए दहेज को छोड़ देनेवाला मैंने आज तक न देखा। जब लड़कों की तरह लड़ड़ियों को शिक्षा और जीविका की सुविधाएं निकल आयेंगी, तो यह प्रथा भी विदा हो जायगी। उसके पहले सम्भव नहीं। मैंने जहाँ-जहाँ सन्देशा भेजा, दहेज का प्रश्न उठ खड़ा हुआ और आपने प्रत्येक अवसर पर टांग अढाई । जब इस तरह पूरा साले गुजर गया और कन्या का सत्रा लग गया, तो मैंने एक जगह बात पक्को कर ली। आपने भी स्वीकार कर लिया, क्योंकि घर-पक्ष ने लेन-देन का प्रश्न उठाया ही नहीं हालांकि अन्तःकरण में उन लोगों को पूरा विश्वास था कि अच्छी रक्कम मिलेगी और मैंने भी तय कर लिया था कि यथाशकि कोई बात उठा न रखूगी । विवाह के सकुशल होने में कोई सन्देह न था लेकिन इनम हाशय के आगे मेरी एक न दलतो थी --- यह प्रथा निन्य है, यह रस्म निरर्थक है, यहाँ रुपये को श्या प्रखरत : हाँ गीतों का क्या काम ? नाक में दम था। यह क्यो, वह क्यों, यह तो साफ दहेज है, तुमने मेरे मुँह में कालिख लगा दी, मेरी आवरू मिटा दो ! जरा सोचिए, इस परि- स्थिति को कि वरात द्वार पर पड़ी हुई है और यहाँ बात-बात पर शास्त्रार्थ हो रहा है। विवाह का मुहूर्त आधी रात के बाद था। प्रधानुसार मैंने व्रत रखा ; किन्तु आपकी टेक थी कि व्रत को कोई जरूरत नदी । जब लड़के के माता-पिता बत नहीं रखते, जब लड़का तक व्रत नहीं रखता, तो कन्या-पक्षवा ही व्रत क्यों रखें । म और सारा खानदान मना करती रही, लेकिन आपने नाश्ता किया, भोजन किया । खैर ! कन्या-दान का मुहूर्त आया। आप सदैव से इस प्रथा के विरोधी हैं । आप इसे निखिद समझते हैं। कन्या क्या दान को वस्तु है ? दान रुपये-पैसे, जगह-जमीन का हो सस्ता है। पशुदान भी होता है। लेकिन लड़की का दान ! एक लचर-सी बात है। कितना समझाती हूँ, पुरानी प्रथा है, वेदकाल से होती चलो आई है, शास्त्रों में इसकी व्यवस्था है, सम्बन्धी समझा रहे हैं, पण्डित समझा रहे हैं। पर आप है, कि कान पर जू नहीं रेंगती । हाथ जोड़ती हूँ, पैरों पड़ती हूँ, गिड़गिड़ाती हूँ लेकिन भाप मण्डप के नीचे न गये। और मजा यह है कि आपने हो तो यह अनर्थ किया और भाभी मुझसे रूठ गये। विवाह के पश्चात् महीनों बोल-चालान रहो । झक मारकर मुझी को मनाना पड़ा।

किन्तु सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इन सारे दुर्गुणों के होते हुए भी मैं