पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/३०४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

३१५
गिला


इनसे एक दिन भी पृथक् नहीं रह सकती-एक क्षण का वियोग नहीं सह सकती। इन सारे दोषों पर भी मुझे इनसे प्रगाढ़ प्रेम है। इनमें वह कौन-सा गुण है, जिस पर मैं मुग्ध हूँ, मैं खुद नहीं मानती; पर इनमें कोई मात ऐसी है, जो मुझे इनको चेरी बनाये हुए है। वह जरा मामूल से देर में घर आते है, तो प्राण नहों में समा जाते हैं ! आज यषि विधाता इनके बदले मुझे कोई विद्या और बुद्धि का पुतशा, रूप और धन का देवता भी दे, तो मैं उसको ओर आँखें उठाकर न देखूँ । यह धर्म की बेढी नहीं है, कदापि नहीं। प्रथागत पतिव्रत भी नहीं, बल्कि हम दोनों को प्रकृति में कुछ ऐसी क्षमताएँ, कुछ व्यवस्थाएँ उत्पन्न हो गई है, मानों किसी मशीन के कल-पुरजे धिस-घिसाकर फिट हो गये हो, ओर एका पुरजे को जगह दूसरा पुरजा काम न दे सके, चाहे वह पहले से कितना ही सुडौल भोर नया और सुदृढ़ क्यों न हो । जाने हुए रास्ते है हम नि शक आँखें बन्द किये चले जाते हैं, उसके ऊँच-नीच, मोड़ और घुमान सम हमारी भाखों में समाये हुए हैं। अनजान रास्ते पर चलना कितना कष्ट-प्रद होगा। शायद आज मैं इनके दोषों को गुणों से बदलने पर भी तयार न हूँगी।