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रसिक सम्पादक


ब्याह, गौना, सूइन, छेदन, जन्म, मरण के समाचार आने लगे। कोई आशीर्वाद मांगती, कोई उनके मुख से सांत्वना के दो शब्द सुनने को अभिलाषा करतो, कोई उनसे घरेलू सकटों में परामर्श पूछतो। और महीने में दस-पांच महिलाएँ उन्हें दर्शन भी दे आती। शर्माजी उनको अवाई का तार या पत्र पाते ही स्टेशन पर जाकर उनका स्वागत करते, बड़े आग्रह से उन्हें एकाध दिन ठहराते, उनकी खूब खातिर करते । सिनेमा के फ्री पास मिले हुए थे हो, खूब सिनेमा दिखाते । महिलाएँ उनके सदभाव मुग्ध होकर विदा होती। मशहूर तो यहाँ तक है कि शर्माजी का कई लेखिकाओं से बहुत ही घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया है । लेकिन इस विषय में हम निश्चय-पूर्वक कुछ नहीं कह सकते। हम तो इतना हो जानते हैं कि जो देवियों एक पार यहाँ आ जाती, वह शर्माजी की अनन्य भक्त हो जाती। बेचारा साहित्य को कुटिया का तपस्वी है। अपने विधुर जीवन की निराशाओं को अपने अन्तस्तल में सचित रखकर मूक वेदना में प्रेम-माधुर्य का रस-पान कर रहा है। सम्पादकजो के जोवन में जो कमी आ गई थी, उएको कुछ पूर्ति करना महिलाओं ने अपना धर्म-सा मान लिया। उनके भरे हुए भडार में से अगर एक क्षुधित प्राणी को थोड़ी-सी मिठास दो आ सके, तो उससे भहार की शोभा ही है। कोई देवो पारसल से अचार भेज देतो, कोई लड्डू , एक ने पूजा का उनी भासन अपने हाथों बनाकर भेज दिया। एक देवी महीने में एक बार आकर उनके कपलों की मरम्मत कर देती थीं। दूसरी देवी महीने में दो-तीन बार आकर उन्हें अच्छी-अच्छी ची बनाकर खिला जातो थौं। भव वह किसी एक के न होकर सबके हो गये थे। स्त्रियों के अधिकारों का उनसे कड़ा रक्षक शायद ही कोई मिले। पुरुषों से तो शर्माजी को हमेशा तीन अलोचना ही मिलती थी । श्रद्वामय सहानुभूति का आनन्द तो उन्होंने स्त्रियौ हौ में पाया ।

एक दिन सम्पादकजी को एक ऐसी कविता मिली, जिसमें लेखिका ने अपने उप्र प्रेम का रूप दिखाया था । अन्य सम्पादक उसे अश्लील कहते , लेकिन चोखेलाल इधर बहुत उदार हो गये थे। कविता इतने सुन्दर अक्षरों में लिखी थी, लेखिका का नाम इतना मोहक था कि सम्पादकजी के सामने उसका एक कल्पना-चित्र-सा आकर खड़ा होगया। भावुक प्रकृति, कोमल गात, याचना-भरे नेत्र, बिम्ब-अधर, चंपई रंग, भंग-अग में चपलता भरी हुई, पहले गोंद की तरह शुष्क और कठोर, आई होते ही चिपक बाने. पाली। उन्होंने कविता को दो तीन बार पढ़ा और हर बार उनके मन में सनसनो दौड़ी-