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मानसरोवर

क्या तुम समझते हो मुझे छोड़कर भाग

जाओगे?

भाग सकोगे?

मैं तुम्हारे गले में हाथ डाल दूँगी;
मैं तुम्हारी कमर में कर-पाश कस दूँगी;
मैं तुम्हारा पाँव पकड़कर रोक लूँगी;
तब उस पर सिर रख दूँगी।
क्या तुम समझते हो, मुझे छोड़कर भाग जाओगे?
छोड़ सकोगे?
मैं तुम्हारे अधरों पर अपने कपोल चिपका दूँगी;
उस प्याले में जो मादक सुधा है––
उसे पीकर तुम मस्त हो जाओगे।
और मेरे पैरों पर सिर रख दोगे।
क्या तुम समझते हो, मुझे छोड़कर भाग जाओगे?

–––'कामाक्षी'

शर्माजी को हर बार इस कविता में एक नया रस मिलता था। उन्होंने उसी क्षण कामाक्षी देवी के नाम यह पत्र लिखा–––

'आपकी कविता पढ़कर मैं नहीं कह सकता, मेरे चित्त की क्या दशा हुई। हृदय में एक ऐसी तृष्णा जाग उठी है, जो मुझे भस्म किये डालती है। नहीं जानता, इसे कैसे शान्त करूँ? बस, यही आशा है कि इसको शीतल करनेवाली सुधा भी वहीं मिलेगी, जहाँ से यह तृष्णा मिली है। मन मतंग की भाँति ज़ंज़ीर तुड़ाकर भाग जाना चाहता है। जिस हृदय से यह भाव निकले हैं, उसमें प्रेम का कितना अक्षय भंडार है, उस प्रेम का, जो अपने को समर्पित कर देने ही में आनन्द पाता है। मैं आपसे सत्य कहता हूँ, ऐसी कविता मैंने आज तक नहीं पढ़ी थी और इसने मेरे अन्दर जो तूफ़ान उठा दिया है, वह मेरी विधुर शान्ति को छिन्न भिन्न किये डालता है। आपने एक ग़रीब की फूस की झोपड़ी में आग लगा दी है। लेकिन मन यह स्वीकार नहीं करता कि यह केवल विनोद क्रीडा है। इन शब्दों में मुझे एक ऐसा हृदय छिपा हुआ ज्ञात होता है, जिसने प्रेम की वेदना सही है, जो लालसा की आग