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मानसरोवर


रैटन ! फाय फो। रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जायें। मोहसिन ने प्रतिवाद किया-यह कानिसटिविले पहरा देते हैं ! तभी तुम बहुत जानते हो। अजी हजरत, यही चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मिले रहते हैं। रात को ये लौरा चौरों से तो कहते हैं, चौरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर जागते रहौं। जागते रहो !' पुकारते हैं। जभी इन लोगों के पास इतने रुपये आते हैं। मेरे मामें एक थाने में कानिसटिबिल हैं। बीस रुपया महीना पाते हैं; लेदिन पचास रुपये घर भेजते हैं। अल्ला कसम। मैंने एक बार पूछा। था कि, मामें, आप इतने रुपये कहाँ से पाते हैं ? हँसकर कहने लगे-बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले-हम लोग चाहें तो एछ दिन में लाखों मार लायें। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाय।

हामिद ने पूछा---यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं ?

मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला—-अरे पागल, इन्हें कौन पकया ? पकड़नेवाळे तो यह लोग खुइ हैं। लेकिन अल्लाह इन्हें सजा भी खूब देता है। इराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, माँमू के घर में आग लग गई। सारी लेई-पूंजी जल गई। एक वरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोये, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे। फिर न जाने कहाँ से एक सौ कर्ज लाये तो घरतन-भड़े आये।

हामिद---एक सौ तौ पचास से ज़्यादा होते हैं ?

‘कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। वो तो दो थैलियों मैं भी न आये।

अब बस्ती घनी होने लगी थी। ईदगाह जानेवालों की टोलियाँ नज़र आने लगीं। एक-से-एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमग। ग्रामीण का यह छोटा-सा दल, अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष और धैर्य में मगन प्वला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थी। जिस चीज़ की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते। और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज़ होने पर भी न चेतते। हामिद तौ मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।