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रसिक सम्पादक


उसी मोटो पुस्तक की ओर देखते हुए बोले-नहीं-नहीं, मैं देना चाहता। वह ऐसो कोई बात नहीं है। दो-चार दिन के विश्राम से ठीक हो जायगा । आपकी सहेली आपकी प्रतीक्षा करतो होगी।

'आप तो महाशयजी, सकोच कर रहे हैं। मैं दस पांच दिन के बाद भी चली जाऊँगी, तो कोई हानि न होगी।'

'इसकी कोई आवश्यकता नहीं है देवोजी।'

'आपके मुंह पर तो आपको प्रशसा करना खुशामद होगी। पर जो सजनता मैंने आप में देखो, यद कहीं नहीं पाई। आप पहले महानुभाव हैं, जिन्होंने मेरो रचना का आदर किया। नहीं मैं तो निराश हो चुकी थी। आपके प्रोत्साहन का यह शुभ फल है कि मैंने इतनो कविताएँ रच सालों। आप इनमें से जो चाहें: रख लें।- मैंने एक ड्रामा भी लिखना शुरू कर दिया है। उसै भी शोघ्र ही आपकी सेवा में भेजूंगी। कहिए तो दो-चार कविताएँ सुनाऊँ ? ऐसा अवसर मुझे फिर कब मिलेगा।। यह तो नहीं जानतो कि कविताएँ कैसी हैं ; पर आप सुनकर प्रसन्न होंगे। बिलकुल उसो रग की हैं।'

उसने अनुमति की प्रतीक्षा न की। तुरन्त पोया खोलकर एक कविता सुनाने लगी। शर्माजो को ऐसा मालूम होने लगा, जैसे कोई भिगो-भिगोकर जूते मार रहा है। कई बार उन्हें मतलो भा गई, जैसे एक हजार गधे कानों के पास खड़े अपना स्वर अलाप रहे हो । कामाक्षी के स्वर में कयल का माधुर्म था। पर शर्माजो को इस समय वह भी अप्रिय लग रहा था। सिर में सचमुच दर्द होने लगा । यह गयी टलेगी भो, या बैठी यो हो सिर खाती रहेगी ? इसे मेरे चेहरे से भो मेरे मनोभावों का ज्ञान नहीं हो रहा है । चक्ष पर आप कविता करने चली हैं ! इस मुंह से तो महादेवी या सुभद्राकुमारी की कविताएँ भी घृणा हो उत्पन्न करेंगी।

आखिर न रहा गया । बोले --- आपकी रचनाओं का क्या कहना, आप यह सप्रह यहीं छोड़ जायें । मैं अवकाश में पढ़ गा । इस समय तो बहुत-सा काम है।

कामाक्षी ने दयाई होकर कहा --- आप इतना दुर्वल स्वास्थ्य होने पर भी इतने . व्यस्त रहते हैं। मुझे आप पर दया आती है।

'आपकी कृपा है।'

'आपको कल अवकाश रहेगा ? जरा मैं द्वामा मुनाना चाहती ?'