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मानसरोवर

'कल मुझे जरा प्रयाग जाना है।'

'ता में भी आपके साथ चलें ? गाड़ी में सुनाती चलूंँगी।'

'कुछ निश्चय नहीं, किस गाहो से जाऊँ।'

'अप लौटेंगे कव तक?'

'यह भी निश्चय नहीं।'

और टेलीफोन पर जाकर बोले --- हेल्लो नं०७७ ।

कामाक्षी ने आध घण्टे तक उनका इन्तजार किया ; मगर शर्माजो एक सज्जन से ऐसी महत्त्व की बातें कर रहे थे, जिसका अन्त हो होने न पाता था।

निराश होकर कामाक्षी देवी विदा हुई और शीघ्र ही फिर आने का वादा कर गई। शर्माजी ने आराम की सांस ली और उस पोधे को उठाकर रद्दी में डाल दिया और जले हुए दिल से आप-ही-आप कहा--देवर न करें कि फिर तुम्हारे दर्शन हो । कितनी बेशर्म है, कुलटा कहाँ लो ! आज इसने सारा मजा किरकिरा कर दिया।

फिर मैनेजर को बुलाकर कहा --- कामाक्षी की कविता नहीं जायगी ।

मैनेजर ने स्तम्भित होकर कहा --- फार्म तो मशोन पर है।

'कोई हरज नहीं । फार्म उतार लीजिए।'

'बड़ी देर होगी।'

'होने दीजिए। वह कविता नहीं जायगी।'


मनोवृत्ति

एक सुन्दरी युवती, प्रातःकाल गांधी पार्क में 'विल्लौर के बैंच पर गहरी नींद में लोई पाई जाय, यह चौंका देनेवाली बात है । सुन्दरिया पाकों में हवा खाने भाती हैं, इसतो हैं. दौड़ती है, फूल-पौधों से खेलती है, किसी का इधर ध्यान नहीं जाता, लेकिन कोई युवती रविश के किनारेवाले पैच पर बेखबर सोये, यह बिलकुल गैर मामूली बात है, अपनी ओर पल-पूर्वक आकर्षित करनेवाली। रविश पर कितने आदमी चहलकदमी कर रहे हैं, बूढ़े भी, जवान भी, सभी एक क्षण के लिए वहाँ हिठक जाते हैं, एक नजर वह दृश्य देखते हैं और तब चले जाते हैं । युवक-वृन्द रहस्यभाव से मुखकिराते हुए, वृद्धजन चिता-भाव से सिर हिलाले हुए और युवतियां लज्जा से आँखें नीची किये हुए