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मनोवृत्ति


वसत और हाशिम निकर और बनियाइन पहने नंगे पांव दौड़ रहे हैं। बड़े दिन की छुट्टियों में ओलिम्पियन रेस होनेवाला है, दोनों उसी की तैयारी कर रहे हैं। दोनों इस स्थल पर पहुंचकर रुक जाते हैं और दगी आँखों से युक्तो को देख- कर आपस में खयाल दौड़ाने लगते हैं। वसत ने कहा-इसे और कहीं सोने की जगह ही न मिली।

हाशिम ने जवाब दिया --- कोई वेश्या है।

'लेकिन वेश्याएँ भी तो इस तरह बेशर्मी नहीं करती।'

'वेश्या अगर बेशर्म न हो तो वेश्या नहीं।'

'बहुत-सी ऐसी बातें हैं, जिनमें कुलवधू, और वेश्या दोनों एक व्यवहार करतो है। कोई वेश्या मामूली तौर पर सड़क पर सोना नहीं चाहती।'

'रूप छवि दिखाने का नया आर्ट है।'

'आर्ट का सबसे सुन्दर रूप छिपाव है, दिखाव नहीं । वेश्या इस रहस्य को खूब समझती हैं।'

'उसका छिपाव केवळ आकर्षण बढाने के लिए है।'

‘हो सकता है, मगर केवल यहाँ सो जाना यह प्रमाणित नहीं करता कि यह वेश्या है। उसकी मांग में सेंदुर है।'

'वेश्याएँ अवसर पड़ने पर सौभाग्यवती बन जाती हैं। रात-सर प्याले के दौर चले होंगे । काम-कोहाएँ हुई होगो । अवसाद के कारण, ठण्डक पाकर सो गई होगी।'

'मुझे तो कुल-वधू-सी लगती है।'

'कुल-बधू पार्क में सोने आयेगो ?'

'हो सकता है, पर से रूठकर आई हो।'

'चलकर पूछ ही क्यो न लें।'

'निरे अहमक हो । बगैर परिचय के आप किसी को जगा कैसे सकते हैं ?'

'अजी, चलकर परिचय कर लेंगे। उलटे और एहसान जतायेंगे।' और जो कहीं भिड़क दे ?'

'झिड़कने की कोई बात भी हो। उससे सौजन्य और सहायता में डूबी हुई बाते करेंगे। कोई युक्तो ऐसी बातें सुनकर चिढ़ नहीं सकती। अजी, गतयौवनाएं