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मानसरोवर

'रात-भर यहीं रही है, कुछ-कुछ बदती हूँ।'

मोनू युवती के पास जाकर उसका हाथ पकड़कर हिलाती है—यहाँ क्यों सो रही हो देवीजी, इतना दिन चढ़ आया, उठकर घर जाओ।

युवती आंखें खोल देती है --- ओ हो, इतना दिन चढ़ आया क्या में सो गई थी मेरे सिर में चमकार था जाया करता है । मैंने समझा, शायद हवा से कुछ लाभ हो। यहाँ आई , पर ऐसा चक्कर आया कि मैं इस बेश्च पर बैठ गई, फिर मुझे कुछ होश न रहा। अब भी मैं खड़ी नहीं हो सकती । बालम होता है, गिर पडूंगी। बहुत हवा की; पर कोई फायक्षा नहीं होता। आप डाक्टर श्यामनाथ को जानती होगी, वह मेरे ससुर है।

युवती ने आश्चर्य से कहा --- अच्छा। वह तो अभी इधर ही से गये हैं।

'सच ! लेकिन मुझे पहचान कैसे सकते हैं ? सभी मेरा गौना नहीं हुआ है।'

'तो क्या आप उनके लड़के वसन्तलाल की धर्मपत्नी है?'

युवती ने नाम से सिर झुकार स्वीकार किया। मोनू ने हंसकर कहा --- वसन्त- बल भी तो अभी इधर से गये हैं। मेरा उनसे युनिवर्सिटी का परिचय है।

'अच्छा ! लेकिन मुझे उन्होंने देखा कहीं है।'

'तो मैं दौलकर डॉक्टर साहब को खबर दे ?'

'जी नहीं, मैं थोड़ी देर में बिलकुल अच्छी हो जाऊँगी।'

'वसन्तलाल भी वह खड़ा है, उसे बुला दूँ ?'

'जी नहीं, किसी को न बुलाइए।'

'तो चलो, अपनी मोटर पर तुम्हें तुम्हारे घर पहुंचा है।'

'आपकी बड़ी रुपा होगी।'

'किस मुहल्ले में ?'

'बेगमगज, मि० जयरामदास के घर ?'

'मैं आज ही मि० वसन्तलाल से कहूँगी ।'

'मैं क्या जानती थी कि वह इस पार्क में आते हैं।'

'मगर कोई आदमी तो साथ ले लिया होता ?'

'किस लिए ? कोई ज़रुरत न थी।'