पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

४४
माँ


आश्वासन दिया था। कितनी ही राते फाकी से गुजरी, बहुधा घर में दीपक जलने की नौबत भी न आती थी ; पर दीनता के आँसू भी उसकी आँखों से न धिरे। आज उन सारी विपत्तियों का अन्त हो जायगा। पति के प्रगाढ़ आलिंगन मैं वह स६६ कुछ हँसकर सेल लेगी। वह अनन्त निधि पाझर फिर उसे कोई अभिलाषा में रहेगी।

गगन-पथ का चिरगामी पथिक लपका हुआ विश्राम की और चला जाता था, जहाँ सन्ध्या ने सुनहरा फ़श सजाया था और उज्ज्वल पुष्र्यों की सेज बिछा रखी थी। उसी समय करुणा को एक आदमी लाठी टेकता आता दिखाई दिया, मान किसी जीर्ण मनुष्य की वेदना-ध्वनि हो। पग-पग पर रुककर खराने लगता था। उसका सिर झुका हुआ था, करुणा उसका चेहरा न देख सकती थी ; लेकिन चाल-ढाल से कोई बूढ़ा आदमी भालूम होता था; पर एक क्षण में जब वह समीय आ गया, तो करुणा उसे पहचान गई । वह उसका प्यारा पति ही था ; किन्तु शौक ! उसकी सूरत कितनी बदल गई थी। वह जवानी, चह तेज, वह चपलता, वह सुगठन सर्व प्रस्थान कर चुका था। केवल इडिहयों का एक ढाँचा रह गया था। न कोई सगी, न साथी, न यार, न दोस्त करुणा उसे पहचानते ही बाहर निकल आई। पर आलिंगन की कामना हृदय में दबकर रह गईं। सारे मसूबे धूल में मिल गये। सारा भनौलास आँसुओं के प्रवाई में बह गया, विलीन हो गया है।

आदित्य ने घर में कदम रखते ही मुसकिराकर करुणा को देखा। पर उस मुसक्यान में वेदना का एक ससार भरा हुआ था। करुणा ऐसी शिथिल हो गई, मानें हृदय का स्पन्दन रुक गया हो। वह फटी हुईं औखों से स्वामी की और टकटकी धे खड़ी थी, मानें उसे अपनी आँखों पर अब भी विश्वास न आता हो। स्वागत या दुःख का एक शब्द भी उसकै मुँह से न निकला। बालक भी उसकी गोद में धै हुआ सहमो आँखों से इस काल को देख रहा था और माता की गोद में चिपळ, जाता था।

आखिर उसने कातर स्वर में कहा----यह तुम्हारी क्या दशा है ? बिलकुल पहचाने नहीं जाते।

आदित्य ने उसकी चिता को शान्त करने के लिए सुसकिराने को चेष्टा कर कहा--- कुछ नहीं, ज़रा दुमला हो गया हूँ। तुम्हारे हाथ का भोजन पाकर 'फिर स्वस्थ हो जाऊँगा।