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माँ

करुणा बालक को लिये हुए उठी, और थालो में कुछ भोजन निकालकर लाई। आदित्य ने क्षुधा-पूर्ण नेत्रों से थाली को ओर देखा, मान आज बहुत दिनों के बाद कोई खाने को चीज़ सामने आई है। जानता था कि कई दिनों के उपवास के बाद और आरोग्य की इस गई-गुजरो दशा में उसे ड़ावात को काबू में रखना चाहिए ; पर सब्र ने कार सका, थाली पर टूट पड़ा और देखते-देखते धालो साफ कर दो। करुणा सशक हो गईं। उसने दोबारा किसी चीज़ के लिए ने पूछ। थालो उठाकर चली गई, पर उसका दिल बह रह था--इतना तो यह भी न खाते थे। करुणा बच्चे को कुछ खिला रही थी कि एकाएक कानों में आवाज़ आईं-- करुणा !

करुणा ने आकर पूछा---क्या तुमने मुझे पुकारा है ?

आदित्य का चेहरा पीला पड़ गया था, और साँस ज़ोर-ज़ोर से चल रही थी। हार्थों के सहारे वहीं शाट पर लेट गये थे। करुणा उनको यह हालत देखकर घबड़ा गई। बोली-जाकर किसी वैद्य को बुला लाऊँ ?

आदित्य ने हाथ के इशारे से उसे सनई कारकै अहा-व्यर्थ है करुणा ! अम तुमसे छिंपानी व्यर्थ हैं, मुझे तपेदिक हो गया है। कई बार मरते-मरते बच गया हैं। तुम लोगों के दर्शन दे थे। इसी लिए प्राण न निकलते थे। देखो प्रिये, रौओ सत।

करुणा ने सिसकियों को दवाते हुए कहा---मैं वैद्य नो को लेकर अभी आती हूँ।

आदित्य ने फिर सिर हिलाया-नहीं करुणा, केवल मेरे पास बैठी रहौ । अब किसी से कोई आशा नहीं है। डाक्टरों ने जवाब दे दिया है। मुझे तो यही आश्चर्य है कि यहाँ पहुँच कैसे गया । न जाने कौन-सी दवो शक्ति मुझे वहाँ से खींच लाई। कदाचित् यह इस बुकाते हुए दीपछ छी अन्तिम झक थी। आह ! मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया। इसका मुझे हमेशा दुःख रहेगा। मैं तुम्हें कोई आराम न दे सका। तुम्हारे लिए कुछ न कर सका। केवल सोहाग का दाग लगाकर और एकबालक के पालन का भार छोड़कर चला जा रहा हूँ। आह।

अरुण ने हृदय को दृढ़ करके कहा—तुम्हें कहीं दर्द तो नहीं हो रहा है ? आग चना लाऊँ। कुछ बताते थें नहीं।

आदित्य ने करवट बदलकर कहा---कुछ करने की ज़रूरत नहीं प्रिये ! कहीं दर्द नहीं। बस, ऐसा मालूम हो रहा है कि दिल बैठा जाता है, जै? पानी में डूबा जाता