पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

५५
माँ


आधी रात के समीम एकाएक प्रकाश को नीद स्ट, लालटेन जल रही है, और अरुणा बैठी हो रही है। उठ बैठा और बोला---अम्माँ, अभी तुम सोई नहीं ?

करुणा ने मुंह फेरकर कहा---नींद नहीं आई। तुम कैसे जाग गये ? प्यास तो नहीं लगी है ?

प्रकाश ---नहीं अम्माँ, न जाने क्यों आँख खुल गई–मुझसे आज बड़ा अपराध हुआ अम्माँ

करुणा ने उसकै मुख को और स्नेह के नेत्रों से देखा है

प्रकाश ---मैंने आज बुढिया के साथ बड़ी नटखटी की। मुझे क्षमा करो। फिर कभी ऐसी शरारत ने करूँगा।

यह कहकर रोने लगा। करुगा ने स्नेहाद्र होकर उसे गले लगा लिया, और उपके अपोलों का चुम्बन करके बोलो-बेटा, मुझे खुश करने के लिए यह छह रहे हो, या तुम्हारे मन में सचमुच पछतावा हो रहा है ?

प्रकाश ने सिसकते हुए कहा---नहीं अम्माँ, मुझे दिल से अफसोस हो रहा है। की वह बुढ़िया आयेगी, तो मैं उपे बहुत से पैसे देंगा।

करुणा का हृदय मतवाला हो गया। ऐसा जान पहा, आदित्य सामने खड़े बच्चे को अशोर्वाद दे रहे हैं और कह रहे हैं, करुणा, क्षोभ मत कर, प्रकाश अपने पिता घा नाम रोशन करेगा। देरी से पूर्व मनाएँ पूरी हो जायेंगी।

( ३ )

लेकिन प्रकाश के कर्म और वचन में मेल न था, और दिन के साथ उसके चरित्र का यह अंग प्रत्यक्ष होता जाता था। जहीन था ही, विश्वविद्यालय से उसे वज़ीफे मिलते थे, करुणा भी उसकी यथेष्ट सहायता करती थी, फिर भी उसका खर्च पूर ने पता था। वडू मितव्ययता और सरल जीवन पर विद्वत्ता से भरे हुए व्याख्यान दे सकती धा; पर उसका रहन-सहन फैशन के अंधभक्तों से जी-भर घटकर न था। प्रदर्शन की धुन उसे हमेशा सवार रहती थी। उसके मन और बुद्धि में निरन्तर द्वन्द्व होता रहता था। मन जाति की ओर था, चुदि अपनी ओर। बुद्धि मन को दबाये रखती थी। इसके सामने मन की एक न चलतो थी। जाति-सेवा ऊसर की खेती है, वह बड़े-से-खड़ा रहार जो मिल सकता है, वह है गौरव और यश, पर वह भो स्थायी नहीं, इतना अपर कि क्षण में जीवन-भर की कमाई पर पानी कि