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मानसरोवर


करुणा--मैं यह न मानूंगी। सरकार अपने नौकरों को इतनी स्वाधीनता नहीं देती। वह एक नीति बना देती है, और इर एक सरकारी नौकर को उसका पालन करना पड़ता है। सरकार को पहली यह है कि वह दिन-दिन अधिक संगठित और दृढ़ हो। इसके लिए स्वाधीनता के भावों का दमन करना ज़रूरी है। अगर कोई मैजिस्ट्रेट इस नीति के विरुद्ध काम करता है, तो वह मैजिस्ट्रेट न रहेगा। वह हिन्दुस्तानी मैजिस्ट्रेट था, जिसने तुम्हारे बाबूजी को ज़रा-सी बात पर तीन साल की सज़ा दे दी। इसी सज़ा ने उनके प्रण लिये। बेटा, मेरी इतनी बात मानो। सरकारी पदों पर न गिरो। मुझे यह मजूर है कि तुम मटा खादर और मोटा पहनकर अपने देश की कुछ सेवा झो, इसके बदले कि तुम हाकिम बन जाओ, और शान से जीवन बिता। यह समझ लो कि जिस दिन तुम हाकिम की कुरसी पर बैठोगे, उस दिन से तुम्हारा दिमास हाकिमों का-सी हो कायदा। तुम यही चाहोगे कि अफसरों में तुम्हारी नेकनासो और तरक्को हो। एक गंवारू मिसाल लो। लड़की जब तक मैले में क्वाँरी रहती है, वह अपने को उसी घर का समझती है ; देकिन जिस दिन ससुराल चली जाती है, वह अपने घर को दूसरों को घर समझने लगती है। माँ-बाप, भाई-बंद सब वही रहते हैं। लेकिन वह घर अपना नहीं रहता। यही दुनिया का

प्रकाश ने खीम्झकर कहा--- तो क्या आप यही चाहती हैं कि मैं ज़िन्दगी-भर चारों तरफ ठौरे खाता फिरू ?

करुणा ठौर नेत्रों से देखेर बोली--- अगर ठीकर खाकर आत्मा स्वाधीन रह सती है, मैं तो कहूँगी, ठोकर खाना अच्छा है ।।

प्रकाश ने निश्चयात्मक भाव से पूछा---तो आपकी यही इच्छा है ?

करुणा ने उसी स्वर से उत्तर दिया--- हो, मेरी यही इच्छा है।

प्रकाश ने कुछ जवाब न दियो। अठर बाहर चला गया, और तुरन्त रजिस्ट्रार को इनकारी पत्र लिख भेजा ; मगर उसी क्षण से मानो उसके सिर पर विपत्ति ने आसन जमा लिया। विरक्त और दिसन अपने कायरे में पड़ा रहता, न ६हीं घूमने जाता, न झिसी से मिलता। मुँह लटकाये तर आता, और फिर बाहर चला जाता, यहाँ तक कि एक महीना गुज़र गया। के चेहरे पर वह वली रही, वह अज, , आँखें अनार्थों के मुख की भाँति याचना से भरी हुई, ओठ हँसना भूल गये, माने?