पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/५३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

६०
मानसरोवर


बात न थी ; लेकिन जब सध्या हो गई, और करुणा न आई, तो प्रकाश को चिन्ता होने लगी। अम्मू कहाँ गईं ? यह प्रश्ने बार-बार उसके मन में उठने लगा।

प्रकाश सारी रात द्वार पर बैठा रहा। भाँति-भाँति को शकाएँ मन में उठने लगीं। उसे अब याद आया, चलते समय करुणा कितनी उदास थी, उसकी आँखें कितनी लाल थी। यह बातें प्रकाश को उस समय क्यों न नज़र आईं ! वह क्यों स्वार्थ मैं अन्धा हो गया था।

हाँ, अब प्रकाश को याद आया--माता ने साफ-सुथरे कपड़े पहने थे। उनकै हाथ में छतरी भी थो, तो क्या वह कहीं बहुत दूर गई हैं ? किससे पूछे ? एक अनिष्ट के भय से प्रकाश रोने लगा।

श्रावण की अंधेरी भयानक रात थी। आकाश में श्याम मेघमालाएँ, भीषण स्वप्न की भाँति छाई हुई थी, प्रकाश रह-रहकर आकाश की ओर देखता धा, मानें करुणा उन्हीं मेघमालाओं में छिपी बैठी है। उसने निश्चय किया, सबेरा होते ही स को खोजने चलें गा और अगर •••

किसी ने द्वार खटखटाया। प्रकाश ने दौड़कर खौला, तो देखा, करुणा खड़ी है। उसका मुख-मंडल इतना खोया हुआ, इतना करुण था, जैसे आज ही उसका सोहाग उठ गया है, जैसे संसार में अव उसके लिए कुछ नहीं रहा, जैसे वह नदी के किनारे खड़ी अपनी लदी हुई नाव को डूबता देख रही है, और कुछ कर नहीं सकती।

प्रकाश ने अधीर होकर पूछा---अम्माँ, कहीं चली गई थीं ? बहुत देर लगाई ?

करुणा ने भूमि की ओर ताकते हुए जवाब दिया --- एक काम से गई थी। देर हो गई।

यह कहते हुए उसने प्रकाश के सामने एक वद लिफाफा फेंक दिया। प्रकाश ने उत्सुक होकर लिफाफा उठा लिया। ऊपर ही विद्यालय की मुहर थी। तुरन्त लिफाफा खौलङ्कर पढ़ा। हलको-सो लालिमा चेहरे पर दौड़ गई। पूछा-यह तुम्हें कहाँ मिल बाया अम्म ?

करुणा---तुम्हारे रजिस्ट्रार के पास से लाई हैं।

‘क्या तुम वहाँ चली गई थी ?'

‘और क्या करती।’

‘कल तो गाड़ी का समय न था ? ’

‘भोटर ले ली थी।’