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माँ


प्रकाश एक क्षण तक मौन खड़ा रहा। फिर कुण्ठित स्वर में बोला--- जब तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो क्यों मुझे भेज रहो हो ?

करुणा ने विरक्त भाव से कहा ---इसलिए कि तुम्हारी जाने की इच्छा है। तुम्हारा यह मलित वेष नहीं देखा जाता। अपने जोवन के वीस वर्ष तुम्हारी हितकामना पर अर्पित कर दिये ; अब तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा की हत्या नहीं कर सकती। तुम्हारी यात्रा सफल हो, यही मेरी हार्दिक अभिलाषा है।

करुणा का कण्ठ रूँध गया और कुछ न कह सकी।

( ५ )

प्रकाश उसी दिन से यात्रा की तैयारियाँ करने लगा। करुणा के पास जो कुछ था, वह सब खर्च हो गया। कुछ ऋण भी लेना पड़ा। नथे सूट बने, सूटकेस लिये गये। प्रकाश अपनी धुन में मस्त था। भी किसी चीज़ की फरमाइश लेकर आता, कभी किसी चीज़ की‌।

करुणा इस एक सप्ताह में कितनी दुर्वल हो गई है, उसके वालों पर कितनी सफेदी आ गई है, चेहरे पर कितनो झुर्रियां पड़ गई हैं, यई उसे कुछ न नज़र आता। उसकी अखि में इलैंड के दृश्य समाये हुए थे। महत्वाकांक्षा अखिों पर परदा डाल देती है।

प्रस्थान का दिन आया। आज कई दिनों के बाद धूर निकली थी। करुण स्वामी के पुराने कपड़ों को बाहर निकाल रही थी। उनको गाढे से चादरे, खद्दर के कुरते और पाजासे और लिहाफ अभी तक सदूक में भवित थे। प्रतिवर्ष वे धूप में सुखाये जाते, और झाड़-छकर रख दिये जाते थे। करुणा ने आज फिर इन कपड़ों को निकाला , मगर सुखकर रखने के लिए नहीं, अब छ बाँट देने के झिए। वह आज पति से नाराज़ है। वह लुटया, ढोर और घड़ी जो आदित्य की चिरसगिनी थीं और जिनकी आज बीस वर्ष से करुणा ने उपासना की थी, आज निकालकर आँगन में फेंक दो गई , वह झोली जो बरसों आदित्य के कत्रों पर अरूढ़ रह चुकी थो, आज कुई में डाल दो गई ; वह चिन्न जिसके सामने आज वीस वर्ष से रुग! विर झुकाती थो, आज वही निर्दयता से भूमि पर डाल दिया गया। पति का कोई स्मृति-चिह्न; वह अध अपने घर में नहीं रखना चाहती। उसको अन्तकरण शोक और निराशा से विदीर्ण हो गया है और पति के सिवा चह किस पर क्रोव उतारे ! कौन उसका अपना है?