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माँ


कोई न था। किसके लिए दूध दुहे, मस्का निकाले ? खानेवाला कौन था ? करुणा ने अपने छोटे-से संसार को अपने ही अन्दर समेट लिया था।

किन्तु एक हो सप्ताह में अरुणा के जोवन ने फिर रङ्ग बदला। उसका छोटा-सा संसार फैलते-फैलते विश्वव्यापी हो गया। जिस लगर ने नौका को तट से एक केन्द्र पर बाँध रखा था, वह उखड़ गया। अब नौ सागर कै आशष विस्तार में भ्रमण करेगी, चाहे वह उद्दाम तर गे के वक्ष में ही वयों ने विलीन हो जाय !

करुणा द्वार पर आ बैठती, और महरले भर के लड़कों को जमा करके दूध पिलाती। दोपहर तक मक्खन निकालती, और वह मक्खन सङ्घले के लड़के खावें। फिर भाँति भाँति के पकवान बनाती, और कुत्तों को लियत। अब यही उसका नित्य का नियम हो गया। चिड़ियो, कुत्ते, बिल्लियाँ, चींटे-चीटियाँ सद अपने हो गये। प्रेम का वह द्वार अब किसी के लिए चन्द ने था। इस अगुल-भर जगह में, जो प्रकाश के लिए भी काफी न थी, अब समस्त ससार समा गया था।

एक दिन प्राश का पत्र आया। करुणा ने उसे उठाझर पक दिया। फिर थोड़ी देर के बाद उसे उठाकर फाड़ डाला, और चिड़ियो ) दाना चुगने लगी ; मगर ज निशा-यौगिनी ने अपनी धूनी जलाईं, और वेदनाएँ उससे वरदान मांगने के लिए विफल हो-होकर चली, तो करुणा की मनोवेदना भी सजग हो उठी-- प्रकाश का पत्र पढ़ने के लिए उसका मन व्याकुल हो उठा। उसने सोचा, प्रकाश मेरा कौन है ? मेर उससे वया प्रयोजन ? हाँ, प्रकाश मेरा द्रौन है ? हृदय ने उत्तर दिया, प्रकाश तेरा सर्वस्व है, वह तेरे उस अमर प्रेम की निशानी है, जिससे तू सदैव के लिए वचित हो गई। वह तेरे प्राणों का प्राण है, तेरे जीवन-दीपक का प्रकाश, तेरी वचित म्झामना छ। माधुर्य, तेरे अश्रु-जल में बिहार करने वाला हास। करुण उस पत्र के टुकड़ों को जमा करने लगी, मानों उसके प्राण बिखर गये हैं। एक-एक टुकड़ा उसे अपने खोये हुए प्रेम का एक-एई पदचिह्न सा मालूम है तो था। जग सारे पुर जमा हो गये, तो करुणा दीपक के सामने बैठकर उन्हें जोड़ने लगी, जैसे कोई वियोगी हृदय प्रेम के टुटे हुए तारों को जोड़ रहा हो‌ हाय री ममता वह अभागिनी सार। रात उन पुरजों जोदने में लगी रही। पत्र दोनों ओर लिखा हुआ था, इसलिए पुरज की ठीक स्थान पर रखना और भी दिन था। कोई शब्द, कोई वाक्य बीच में