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मानसरोवर


गायब हो जाता है उस एक टुकड़े को वह फिर खोजने लगती। सारी रात औत गई। पर पत्र अभी तक अपूर्ण था।

दिन चढ़ आया, मुहल्ले के लौंडे सक्खन और दूध की चाट में एकत्र हो गये, कुत्तों और बिल्लियों का आगमन हुआ, चिड़ियाँ आ-आकर आँगन में फुदकने लगीं, कोई ओखलौ पर बैठी, कोई तुलसी के चौतरे पर ; पर अरुणा को सिर उठाने की फुरसत नहीं।

दोपहर हुआ। करुणा ने सिर ने उठाया। न भूख थी, न प्यास। फिर सन्ध्या हो गई, एई वह पत्र अभी तज्ञ अधूरा था। पत्र का आशय समझ में आ रहा था--- प्रकाश का जहाज़ कहीं-से कहीं जा रहा है। उसके हृदय में कुछ उठा हुआ है। क्या उठा हुआ है। वह करुणा न सोच सकी । प्यास से तड़ते हुए आदमी की प्यास क्या औस से बुझ सकती है। करुणा पुत्र की लेखनी से निकले हुए एक-एक शब्द को पढ़ना और उसे अपने हृदय पर अकित कर लेना चाहती थी।

इस भाँति तीन दिन गुज़र गये। सन्ध्या हो गई थी। तीन दिन को जागो आँखें ज़रा झपक गई। करुणा ने देखा, एक लम्बा-चौड़ा कमरा है, उपमें भेजें और कुर्सियाँ लगी हुई हैं, कोच में एक ऊंचे सच पर कोई आदमो बैठा हुआ है। करुणा ने ध्यान से देखा, वह प्रकाश था।

एक क्षण में एक कैदी उसके सामने लाया गया, उसके हाथ-पाँव में ज़ोर थी, कमर झुकी हुई। यह आदित्य थे।

करुणा की आँखें खुल गई। आँसू बहने लगे। उसने पत्र के टुकड़ों को फिर समेट लिया और उखे जलाकर राख कर डाला। राख को एक चुटकी के सिवा वहाँ कुछ न रहा। यही उस ममता की चिता थी, जो उसके हृदय को विदीर्ण किये डालती थी। इसी एक चुटको राख में उसका गुड़ियोंवाला बचान, उसका सतप्त यौवन और उसका तृष्णामय वैधव्य सर्व समा गया है।

प्रातःकाल लोगों ने देखा, तो पक्षी पिंजड़े से उड़ चुका था। अदित्य का चित्र अब भी उसके शून्य हृदय से चिपटा हुआ था। वह भग्न हृदय पति को स्नेह-स्मृति में विश्राम कर रहा था और प्रकाश का जहाज़ योरप चला जा रहा था।