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मानसिक तृप्ति नहीं होती। यह सच है कि हम कहानियों में उपदेशनबुहते लेकिन विचारों को उत्तेजित करने के लिए, मन के सुन्दर भादों को जात करने के लिए, कुछ-न-कुछ अवश्य चाहते हैं। वह कहानो सफल होती है, जिसमें इन दोनों में से एक अवश्य उपलब्ध हो।

सबसे उत्तम कहानी वह होती है, जिसका आधार किसी मनोवैज्ञानिक सत्य पर हो। साधु पिता का अपने कुव्यसनी पुत्र को दशा से दुखी होना मनोवैज्ञानिक सत्य है। इस आवेग में पिता के मनोवेगों को चित्रित करना और तदनुकूल उसके व्यवहारों को प्रदर्शित करना, कहानी को आकर्षक बना सकता है। बुरी आदमी भी बिलकुल बुरा नहीं होता, उसमें कहीं-न कहाँ देवता अवश्य छिपा होता है, यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। उस देवता को खोलकर दिखा देना सफल आख्यायिका का काम है। विपत्ति पड़ने से मनुष्य कितना दिलेर हो जाता है, यहाँ तक कि वह बड़े-से-बड़े संकट का सामना करने के लिए ताल कर तैयार हो जाता है। उसकी सारी दुर्वासना भाग जाती है। उसके हृदय के किसी गुप्त स्थान में छिपे हुए जौहर निकल आते हैं और हमें चकित कर देते हैं। यह मनोवैज्ञानिक सत्य है। एक ही घटना या दुर्घटना भिन्न-भिन्न प्रकृति के मनुष्य को भिन्न-भिन्न रूप से प्रभावित करतो है। हम कहानी में इसको सफलता के साथ दिखा सकें, तो कहानी अवश्य आकर्षक होगी। किसी समस्या का समावेश हानो को आकर्षक बनाने का सबसे उत्तम साधन है। ज्दावन में ऐसी समस्याएँ नित्य हो उपस्थित होती इहती हैं और उनसे पैदा होनेवाला द्वन्द्व आख्यायिका को चमका देता है। सत्यवादी पिता को मालूम होता है कि उसके पुत्र ने हत्या की है। वह उसे न्याय को वेदो पर बलिदान कर दे, या अपने जीवन-सिद्धान्तों की हत्या कर डाले ! कितना भोषण द्वन्द्व है। पश्चात्ताप ऐसे द्वन्द्व का अखड स्रोत है। एक भाई ने दूसरे भाई की सम्पत्ति छल-कपट से अपहरण कर ली है, उसे भिक्षा माँगते देखकर क्या छलो भाई को ज़रा भी पश्चात्ताप न होगा ? अगर ऐसा न हो, तो वह मनुष्य नहीं है।

उपन्यासों को भांति कहानियाँ भी कुछ घटना-प्रवान होती हैं, कुछ चरित्रप्रधान। चरित्र-प्रधान कहानी का पद ऊँचा समझा जाता है ; मगर कहानी में बहुत विस्तृत वि३३षण की गुञ्जायश नहीं होतो। यहाँ हमारा उद्देश्य सपूर्ण मनुष्य को चित्रित करना नहीं, वरन् उपके चरित्र की एक अग दिखाना है। यह परमावश्यक है