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मानसरोवर


हो जायगी। इन कामों के लिए बड़ा अनुभव चाहिए। कोई चीज़ तो इतनी बन जायगी, कि मारी-मारी फिरेगी। कोई चीज़ इतनी कम बनेगी कि किसी पत्तल पर पहुँचेगी, किसी पर नहीं। आखिर इन सबों को हो क्या गया है। अच्छा, बहू तिजोरी क्यों खोल रही है ? वह मेरी आज्ञा के यिना तिजोरी खोलनेवाली कौन होती है ? कुञ्जो उसके पास है अवश्य ; लेकिन जब तक मैं रुपये न मिलबा, तिजोरी नहीं खुलती। आज तो इस तरह खोल रही है, मानों मैं कुछ है ही नहीं। यह मुझसे न बर्दाश्त होगा।

वह समझकर उठी और बड़ी बहू के पास जाकर कठोर स्वर में बोली तिजोरी क्यों खोलती हो बहु, मेंने तो खोलने को नहीं कहा ?

बड़ी बहू ने निस्सकोच भाव से उत्तर दिया-बाजार से सामान आया है, तो उसका दाम न दिया जायगा ?

'कौन चीज़ किस भाव से आई है, और कितनी आई है, यह मुझे कुछ नहीं मालूम ! जब तक हिसाब-किताब न हो जाय, रुपये कैसे दिये जाय?'

'हिसाब-किताब सब हो गया है।'

'किसने किया ?

'अब मैं क्या जानूँ किसने किया ? जाकर मरदों से पूछो। मुझे हुक्म मिला, रुपये लाकर दे दो, रुपये लिये जाती हूँ।'

फूलमती खून का चूंट पोकर रह गई। इस वक्त बिगड़ने का अवसर न था। घर में मेहमान स्त्री-पुरुष भरे हुए थे। अगर इस वक्त उसने लड़कों को डाँटा तो लोग यही कहेंगे कि इनके घर में पण्डितजो के मरते ही फूट पढ़ गई। दिल पर पत्थर रखकर फिर अपनी कोठरी में चली आई। जब मेहमान बिदा हो जायेंगे, तब्द वह एक-एक की खबर लेगी। तब देखेगी, कौन उसके सामने आता है और क्या कहता है। इनकी सारी चौकड़ी भुला देगी।

किन्तु कोठरी के एकान्त में भी वह निश्चित न बैठो थो। सारी परिस्थिति को गिद्ध-दृष्टि से देख रही थी, कहाँ सत्कार का कौन-सा नियम भग होता है, कहाँ मर्या- दाओं की उपेक्षा की जाती है। भोज भारम्भ हो गया। सारी विरादरी एक साथ पङ्गत में बिठा दी गई। आँगन में मुश्किल से दो सौ आदमी बैठ सकते हैं। ये पाँच सौ आदमी इतनी-सी जगह में कैसे बैठ जायँगे ? क्या आदमी के ऊपर आदमी