उमा ने प्रसन्न होकर कहा-बहुत अच्छे। एम० ए०, बी० ए० न सही, यज- मानों से अच्छी आमदनी है।
दयानाथ ने आपत्ति की --- अम्मा से भी तो पूछ लेना चाहिए।
कामतानाथ को इसकी कोई जरूरत न म लूम हुई। बोले --- उनकी तो जैसे बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई है। वही पुराने युग की बात ! मुरारीलाल के नाम पर उधार खाये बैठी हैं यह नहीं समझती कि वह जमाना नहीं रहा। उनको तो बस कुमुद मुरारी पण्डित के घर काय, चाहे हम लोग तबाह हो जायें।
उमा ने एक शका उपस्थित की --- अम्मा अपने सब गहने कुमुद को दे देंगी, देख लीजिएगा।
कामतानाथ का स्वार्थ नीति से विद्रोह न कर सका। बोले-गहनों पर उनका पूरा अधिकार है यह उनका स्त्री-धन है। जिसे चाहें, दे सकती हैं।
उमा ने कहा --- स्त्री-धन है तो क्या वह उसे लुटा देगी ! आखिर वह भी तो दादा ही की कमाई है।
‘किसी को कमाई हो। स्त्री-धन पर उनका पूरा अधिकार है।'
'यह कानूनी गोरखधन्धे हैं। बीस हजार में तो चार-हिस्सेदार हो और दस हजार के गहने अम्मा के पास रह जायें। देख लेना, इन्हीं के बल पर वह कुमुद का विवाह मुरारी पण्डित के घर करेंगी।'
उमानाथ इतनी बड़ी रकम को इतनी आसानी से नहीं छोड़ सकता। वह कपट- नीति में कुशल है। के ई कौशल रचकर माता से सारे गहने ले लेगा। उस वक्त तक कुमुद के विवाह की चर्चा करके फूलमती को भड़काना उचित नहीं। कामतानाथ ने सिर हिलाकर कहा --- भाई, में इन चालों को पसन्द नहीं करता।
उमानाथ ने खिसियाकर कहा --- गहने दस हजार से कम के न होंगे।
कामता अविचलित स्वर में बोले-कितने ही के हों, मैं अनीति में हाथ नहीं डालना चाहता।
'तो आप अलग बैठिए। हो, मीच में भांजी न मारिएगा।'
'मैं अलग रहूँगा।'
'और तुम सीता ?
'मैं भी अलग रहूँगा।'