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मानसरोवर


नत दे दो। और आज से छान पकड़ो कि झिल्ली पत्र में एक शब्द भी न लिखोगे।

दयानाथ कानों पर हाध रखकर बोला --— यह तो नहीं हो सकता अम्माँ कि तुम्हारे जेवर लेकर मैं अपनी जान बचाऊँ। दस-च साल की कैद ही तो होगो, झेल हूँगा। यही बैठा-बैठा क्या कर रहा हूँ। फूलमती छाती पीटते हुए बोली-कैसी बातें मुंह से निकालते हो बेटा, मेरे जीते जी तुम्हें कौन गिरफ्तार कर सकता है ? उसका मुँह झुलस देंगी। गहने इसी दिन के लिए हैं या और किसी दिन के लिए। जव तुम्हीं न रहोगे, तो गहने लेकर क्या आज मैं झकू गी।

उसने पिटारी लाकर उसके सामने रख दी।

दया ने जमा की ओर जैसे फ़रियाद की आँखों से देखा, और बोला-आपको क्या राय है भाई साहब ! इस मारे मैं कहता था, अम्माँ को जताने की ज़रूरत नहीं। जेल ही तो हो जाती या और कुछ।

उमा ने जैसे सिफ़ारिश करते हुए कहा --- यह कैसे हो सकता था कि इतनी बड़ी वारदात हो जाती और अम्म को खबर न होती। मुझसे यह नहीं हो सकता था कि सुनकर पेट में डाल दैती ; मगर अब झरना क्या चाहिए, यह मैं खुद निर्णय नहीं कर सकता। न त यही अच्छा लगता है कि तुम जेल जाओ और न यही अच्छा लगता है कि अम्माँ के गहने गि रखे जायँ।

फूलमति ने व्यथित कुण्ठ से पूछा --- क्या तुम समझते हो, मुझे गहने तुमसे ज्यादा प्यारे हैं? मैं तो अपने प्राण तक तुम्हारे ऊपर न्योछावर कर दें, गहनों की विसात ही क्या है।

दया ने दृढ़ता से कहा --- अम्मा, तुम्हारे गहने तो न हूँगा, चाहे मुझ पर कुछ ही क्यों न आ पड़े। जब आज तक तुम्हारी झुछ सेवा न कर सका, तो किस मुंह से तुम्हारे गहने उठा ले जाऊँ। मुझ जैसे सुपूत को ते तुम्हारी कोख से जन्म ही न लेना चाहिए था। सदा तुम्हें कष्ट ही देता रहा।

फूलमती ने भी उतनी ही दृढ़ता से कहा --- तुम अगर य न लोगे, तो मैं खुद जाकर इन्हें गिरौं रख देंगी और खुद हाकिम जिला के पास जाकर जमानत जमा कर भाऊँगी ; अगर इच्छा हो तो यह परीक्षा भी ले लो। आखें बन्द हो जाने के