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बेटोंवाली विधवा


बाद क्या होगा, भगवान् जाने , लेकिन जब तक जीती हूँ, तुम्हारो ओर कोई तिरको भाखों से देख नहीं सकता।

उमानाथ ने मानों माता पर एहसान रखकर कहा- अब त हमारे लिए कोई रास्ता नहीं रहा दयानाथ। क्या हरज है, ले लो ; मगर याद रखो, ज्यों हो हाथ में रुपये आ जायें, गहने छुड़ाने पड़ेंगे। सच कहते हैं, मातृत्व दीर्घ तपस्या है। माता के सिवाय इतना स्नेह और कौन कर सकता है। हम बड़े अभागे है कि माता के प्रति जितनी श्रद्धा रखनी चाहिए, उसका शताश भी नहीं रखते।

दोनों ने जैसे बड़े धर्म-संकट में पड़कर गहनों को पिटारी संभालो और चलते बने। माता वात्सल्य-भरी आँखों से उनकी ओर देख रहो थो, और उसको सम्पूर्ण आत्मा का आशीर्वाद जैसे उन्हें अपनी गोद में समेट लेने के लिए व्याकुल हो रहा था। आज कई महीने के बाद उसके भन्न मातृ-हृश्य को अपना सर्वस्व अर्पण करके जैसे आनन्द की विभूति मिली। उपकी स्वामिनो-कपना इसो त्याग के लिए, इसो आत्म-समर्पण के लिए जैसे कोई मार्ग ढूँढ़ती रहती थी। अधिकार या लोभ था ममता को वहाँ गन्ध तक न थी। त्याग ही उसका आनन्द औररांग हो उसका अधिकार है। आज अपना खोया हुआ अधिकार पाकर अपनी सिरजी हुई प्रतिमा पर अपने प्राणों को भेंट करके वह निहाल हो गई हो।

( ४ )

तीन महीने और गुज़र गये। मां के गहनों पर हाथ साफ कर चारों भाई उसकी दिल-जोई करने लगे थे। अपनी स्त्रियों को भी समझाते रहते थे कि उसका दिल न दुखायें। अगर थोड़े से शिष्टाचार से उसकी आत्मा को शान्ति मिलती है, तो इसमें क्या हानि है। चारों करते अपने मन को ; पर माता से सलाह ले लेते। या ऐसा जाल फैलाते कि वह सरला उनकी पातों में आ जातो और हरेक काम में सह- मत हो जाती। बाय को बेचना उसे बहुत बुरा लगता था, लेकिन चारों ने ऐसो माया रचो कि वह उसे बेचने पर राजी हो गई। फिन्तु कुमुद के विवाह के विषय में मतैक्य न हो सका। मां प० मुरारीलाल पर ममो हुई थो, लड़के दोनदयाल पर भड़े हुए थे। एक दिन आपस में कलह हो गया।

फूलमती ने कहा --- माँ-बाप की कमाई में बेटी का हिस्सा भी है। तुम्हें सोलह