पृष्ठ:मानसरोवर १.pdf/७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

७१
बेटोंवाली विधवा


उमानाथ ने बेहयाई से कहा --- अम्माँ कानून-कायदा तो जानती नहीं, नाहक उलझती है।

फूलमत क्रोध-विहल होकर बोली-भाड़ में जाय तुम्हारा कानून। मैं ऐसे कानून को नहीं मानती। तुम्हारे दादा ऐसे कोई बड़े धन्नासेठ न थे। मैंने ही पेट और तन काटकर यह गृहस्यो जोड़ी है, नहीं आज चैठने को छह न मिलतो ! मेरे जोते-जो तुम मेरे रुपये नहीं छू सकते। मैंने तीन भाइयों के विवाह में दस दस इजार खर्च किये हैं। वही मैं कुमुद से विवाह में भो खर्च करूंगी। कामतानाथ भो गर्म पड़ा-आपको कुछ भी खर्च करने का अधिकार नहीं है।

उमानाथ ने बड़े भाई को डाँटा, आप खामख्वाह अम्मा के मुँह लाते हैं भाई साहब। मुरारीलाल को पत्र लिख दीजिए कि तुम्हारे यहाँ कुमुद का विवाह न होगा। बस, छुट्टी हुई । यह कायदा कानून तो जानती नहीं, व्यर्थ को वहस करती हैं।

फूलमती ने सयमित स्वर में कहा --- अच्छा, क्या कानून है, परा में भी सुन ?

उमा ने निगेह भाव से कहा --- कानून यही है कि बार के मरने के बाद जाय- दाद बेटों की हो जाती है। मां का हक केवल रोटी-कपड़े का है !

फूलमती ने तड़पकर पूछा --- किसने यह कानून बनाया है ?

उमा शान्त स्थिर स्वर में बोला --- हमारे ऋषियों ने, महाराज मनु ने, और किसने ?

फूलमती एक क्षण अवाक रहकर आहत हुण्ठ से बोली --- तो इस घर में में तुम्हारे टुकड़ों पर पड़ी हुई हूँ?

उमानाध ने न्यायाधीश की निर्ममता से कहा --- तुम जैसा समझो।

फूलमती को सम्पूर्ण आत्मा मानों इस वज्राघात से चीत्कार करने लगी। उसके मुन से जलती हुई चिनगारिमा को भाति यह शब्द निकल पड़े-मैंने पर बनवाया, मैंने सम्पत्ति जोली, मैंने तुम्हें जन्म दिया, पाला और आज में इस घर में गैर हूँ? मनु का यहो कानून है और तुम उसी कानून पर चलना चाहते हो ? अच्छी बात है। अपना घर-द्वार लो। मुझे तुम्हारी पाश्रिता बनकर रहना स्वीकार नहीं। इससे कहीं अच्छा है कि मर जाऊँ। वाह रे अन्धेर ! मैने पेड़ लगाया और में हो उसको छह में सड़ी नदी हो सकती ; अगर यही कानून है, तो इसमें आग लग जाय।

चारों युवकों पर माता के इस झोघ और भात का कोई असर न हुआ।