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मानसरोवर


कानून का फौलादी कवच उनकी रक्षा कर रहा था। इन कीटों का उन पर क्या असर हो सकता था।

जरा देर में फूलमती उठकर चली गई। आज जीवन में पहली बार उसका वात्सल्य-मग्न मातृत्व अभिशाप बनकर उसे धिक्कारने लगा। जिस मातृत्व को उसने जीवन को विभूति समझा था, जिसके चरणों पर वह सदैव अपनी समस्त अभिलाषाओं और कामनाओं को अर्पित करके अपने को धन्य मानती थी, वही मातृत्व आम उसे उस अग्निकुण्ड-सा जान पड़ा, जिसमें उसका जीवन जलकर भस्म हो रहा था।

( ५ )

सन्ध्या हो गई थी। द्वार पर नीम का वृक्ष सिर झुकाये निःस्तब्ध खड़ा था, सानों संसार की गति पर क्षुब्ध हो रहा हो। अस्ताचल की ओर प्रकाश और जीवन का देवता फूलमती के मातृत्व ही की भांति अपनी चिता में जल रहा था। फूलमती अपने कमरे में जाकर लेटो, तो उसे मालूम हुआ, उसकी कमर टूट गाई है। पति के मरते ही अपने पेट के लड़के उसके शत्र, हो जायेंगे, उसको स्वप्न में भी गुमान न था। जिन लड़कों को उसने अपना हृदय-रक्त विला-पिलाकर पाला, वही आज उसके हृदय पर आघात कर रहे हैं। अब यह घर उसे कोटरों को सेज हो रहा था। जहां उसकी कुछ कद्र नहीं, कुछ गिनती नहीं, वहाँ अनाओं की भौति पड़ी रोटियाँ खाये, यह उसकी अभिमानी प्रकृति के लिए असह्य था।

पर उपाय ही श्या था। वह लड़कों से अलग होकर रहे भो तो नाक किसकी कटेगी ! संधार उसे थूके तो क्या, और लड़कों को थूके तो क्या ; बदनामी तो उसी की है। दुनिया यही तो कहेगी कि चार जवान बेटों के होते बुढ़िया अलग पड़ी हुई मजूरा करके पेट पाल रही है। जिन्हे उसने हमेशा नीच समझा, वही उस पर हँसेंगे। नहीं, वह अपमान इस अनादर से कहीं ज्यादा हृदय-विदारक था। अब अपना और घर का परदा ढका रखने में हो कुशल है। हाँ, अब उसे अपने को नई परिस्थितियों के अनुकूल बनाना पड़ेगा। समय बदल गया है। अब तक स्वामिनी बनकर रही, अब लौंडी बनकर रहना पड़ेगा। ईश्वर की यही इच्छा है , अपने बेटों की बाते और लाते गरों की बातों और लातों की अपेक्षा फिर भी गनीमत हैं।

वह बड़ी देर तक मुँह ढापे अपनी दशा पर रोती रही। सारी रात इसो आत्म- वेदना में कट गई। शरद् का प्रभात ढरता-डरता ऊषा की गोद से निकला, जैसे कोई