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बेटोंवाली विधवा


रहने लगी थी, जैसे कोई भिखारिन हो। बेटा और बहुओं से अब उसे जरा भी स्नेह न था। वह अब घर की लौंडी थी। घर के किसी प्राणी, किमी वस्तु, किसी प्रङ्ग से उसे प्रयोजन न था। वह केवल इसलिए जोती थी कि मौत न आती थी। सुख या दुःख का अब उसे लेशमात्र भी ज्ञान न था। उमानाथ का औषधालय खुला, मित्रों को दावत हुई, नाच-तमाशा हुआ। दयानाथ का प्रेस खुला, फिर जलसा हुआ। सौतानाथ को वजीफा मिला और विलायत गया। फिर उत्सव हुआ। कामतानाथ के बड़े लड़के का यज्ञोपवीत-सस्कार हुआ, फिर धूम-धाम हुई , लेकिन फूलमतो के मुख पर आनन्द की छाया तक न आई। कामतानाथ टाइफाइड में महीने-भर बोमार रहा और मरकर उठा। दयानाथ ने अबको अपने पत्र का प्रचार बढ़ाने के लिए वास्तव में एक आपत्ति- जनक लेख लिखा और छ महीने की सज़ा पाई। उमानाथ ने एक फौजदारी के माखले में रिश्वत लेकर राहत रिपोर्ट लिखी और उनकी सनद छीन ली गई , पर फूल- मती के चेहरे पर रज की परछाई तक न पड़ी। उसके जीवन में अब कोई आशा, कोई दिलचस्पी, कोई चिन्ता न थी। वस, पशुओं की तरह काम करना और खाना, यही उसकी ज़िन्दगी के दो काम थे। जानवर मारने से काम करता है ; पर खाता है मन से। फूलमती बेकहे काम करतो थी, पर खाती थी विष के कौर की तरह। महीनो सिर में तेल न पड़ता महीनों कपड़े न धुलते, कुछ परवाह नहीं। वह चेतना- शून्य हो गई थी।

सावन की झड़ी लगी हुई थी। मलेरिया फैल रहा था। आकाश में मटियाले बादल थे। ज़मीन पर मटियाला पानी। आ वायु शात-ज्वर और सास का वितरण चरती फिरती थी। घर को महरो बीमार पड़ गई। फूलमती ने घर के सारे वर्तन मांजे, पानी में भीग-भीगकर सारा काम किया। फिर आग जलाई, और चूल्हे पर पतोलियां चढ़ा दी। लड़कों को समय पर भोजन तो मिलना ही चाहिए।

सहसा उसे याद आया, कामतानाथ नल का पानी नहीं पीते । उसी वर्षा में गङ्गा- जल लाने चली।

कामतानाथ ने पलङ्ग पर लेटे-लेटे कहा --- रहने दो अम्माँ, मैं पानी भर लाऊँगा, आज महरी खूब बैठ रही।

फूलमती ने मटियाले आकाश की ओर देखकर कहा --- तुम भीग जाओगे बेटा, सर्दी हो जायगी।