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मानसरोवर

कामतानाथ बोले --- तुम भी तो भीग रही हो। कहाँ बीमार न पड़ जाव। फूलमती निर्मम भाव से बोली --- मैं बीमार न पड़ूँगी। मुछे भगवान् ने अमर कर दिया है।

उमानाथ भी वहीं बैठा हुआ था। उसके औषधालय में कुछ आमदनी न होती थी। इसीलिए बहुत चिन्तित रहता था। भाई-भावज की मुंह देखी करता रहता था। बोला-जाने भी दो भैया बहुत दिनों बहुओं पर राज कर चुकी हैं, उसका प्रायश्चित्त तो करने दो।

गङ्गा बढ़ी हुई थी, जैसे समुद्र हो। क्षितिज सामने के कूल से मिला हुआ था। किनारों के वृक्षों को केवल फुजगियाँ पानी के ऊपर रह गई थी। घाट ऊपर तक पानी में डूब गये थे। फूलमती कलसा लिये नीचे उत्तरी। पानी भरा और ऊपर जा रही थी कि पाँव फिसला। संभल न सकी। पानी में गिर पड़ी। पल-भर हाथ-पाव चलाये, फिर लहरें उसे नीचे खींच ले गई। किनारे पर दो चार पण्डे चिल्लाये--- 'अरे दौड़ो, बुढ़िया डूबी जाती है।' दो-चार भादमो दौड़े भी; लेकिन फूलमती लहरों में समा गई थी, उन बल खातो हुई लहरों में, जिन्हें देखकर ही हृदय कॉप उठता था।

एक ने पूछा --- यह कौन बुढ़िया थी ?

'अरे, वही पण्डित अयोध्यानाथ की विधवा है।'

'अयोध्यानाथ तो बड़े आदमी थे ?'

'हाँ, थे तो ; पर इसके भाग्य में ठोकर खाना लिखा था।'

'उनके तो कई लड़के बड़े-बड़े हैं और सम कमाते हैं।'

'हाँ, सब हैं भाई ; मगर भाग्य भी तो कोई वस्तु है।'