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बड़े भाई साहब


करूं। मुझे अपना मूर्ख रहना मजूर था लेकिन उतनी मेहनत ! मुझे तो चक्कर मा जाता था, लेकिन घण्टे दो-घण्टे के बाद निराशा के बादल फट जाते और मैं इरादा करता कि आगे से खूब जो लगाकर पढ़गा। चटपर्ट एक टाइम-टेबिल बनाडालता। बिना पहले से नकशा बनाये, कोई स्कीम तैयार किये काम कैसे शुरू करूँ। टाइम- टेबिल में खेल-कूद को मद बिलकुल उड़ जाती। प्रातःकाल उठना, छ: बजे मुँह-हाथ धो, नाश्ता कर, पढ़ने बैठ जाना। छ. से आठ तक अग्रेजो, आठ से नौ तक हिसाब, नौ से साढ़े नौ तक इतिहास, फिर भोजन और स्कूल। साढ़े तीन बजे स्कूल से वापस होकर आध घण्टा आराम, चार से पांच तक भूगोल, पांच से छः तक ग्रामर, आध घण्टा होस्टल के सामने ही टहलना, साढ़े छः से सात तक भंप्रेज़ी कम्पोजीशन, फिर भोजन करके आठ से नौ तक अनुवाद, नौ से दस तक हिन्दी, दस से ग्यारह तक विविध-विषय, फिर विश्राम।

मगर टाइम-टेविल बना लेना एक बात है, उस पर अमल करना दूसरी बात। पहले हो दिन से उसकी अवहेलना शुरू हो जाती। मैदान की वह सुखद हरियाली, हवा के वह हलके-हलके झोंके, फुटबाल को वह उछल-कूद, कबड्डी के वह दांव-घात, वाली-त्राल की वह तेजी और फुरती मुझे अज्ञात और अनिवार्य रूप से खींच ले जाती और वहां जाते ही मैं सब कुछ भूल जाता। वह जान-लेवा टाइम-टेबिल, वह आँख- फोड़ पुस्तके, किसी को याद न रहती, और फिर भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर मिल जाता। मैं उनके साये से भागता, उनकी आँखों से दूर रहने की चेष्टा करता, कमरे में इस तरह दबे पांव आता कि उन्हें खबर न हो। उनको नजर मेरी ओर उठी और मेरे प्राण निकले। हमेशा सिर पर एक नगी तलवार-सौ लटकती मालूम होतो। फिर भी जैसे मौत और विपत्ति के बीच में भी आदमी मोह और माया के बन्धन में अकड़ा रहता है, मैं फटकार और घुइकियां खाकर भो खेल-कूद का तिरस्कार न कर सकता।

( २ )

सालाना इम्तहान हुआ। भाई साहब फेल हो गये, मैं पास हो गया और दरजे में प्रथम आया। मेरे और उनके बीच में केवल दो साल का अन्तर रह गया। जो में आया, भाई साहब को आहे हाथों लू --- आपकी वह घोर तपस्या कहाँ गई ? मुझे देखिए, मजे से खेलता भी रहा और दरजे में औवल भी हूँ। लेकिन वह इतने दुखी