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बड़े भाई साहब


व्यवस्था है, और आठवें हेनरो ने कितने ब्याह किये और आकाश में कितने नक्षत्र हैं, यह बातें चाहे उन्हें न मालूम हो, लेकिन हतारों ऐसी बातें हैं, जिनका ज्ञान उन्हें हमसे और तुमसे ज़्यादा है। दैव न करे, आज मैं बीमार हो जाऊँ, तो तुम्हारे हाथ-पांव फूल जायंगे। दादा को तार देने के सिवा तुम्हें और कुछ न सूमेगा, लेकिन तुम्हारी जगह वादा हो, तो किसी को तार न दें, न पराये, न पदहवास हों। पहले खुद मरज पहचानकर इलाज करेंगे, उसमें सफल न हुए, तो किसी डाक्टर को बुलायेंगे। बीमारी तो खैर बड़ी बीा है। हम-तुम तो इतना भी नहीं जानते कि महीने भर का खर्च महीना-भर कैसे चले। जो कुछ दादा भेजते हैं, उसे हम बीस- बाईस तक खर्च कर डालते हैं, और फिर पैसे पैसे को मुहताज हो जाते हैं। नाश्ता बन्द हो जाता है, धोकी और नाई से मुँह चुराने लगते हैं, लेकिन जितना आज हम और तुम खर्च कर रहे हैं, उसके आधे में दादा ने अपनी उम्र का बहा माग इज्जत और नेकनामी के साथ निभाया है और एक कुटुम्म का पालन किया है जिसमें सब मिलाकर नौ आदमी थे। अपने हेडमास्टर साहन दो को देखो। एम० ए० हैं कि नहीं और यहां के एम० ए० नहीं, आक्सफोर्ड के। एक हजार रुपये पाते हैं। लेकिन उनके घर का इन्तजाम कौन करता है ? उनको बूढ़ो मौ । हेडमास्टर साहन को दियो यही बेकार हो गई। पहले खुद घर का इन्तजाम करते थे। खर्च पूरा न पड़ता था। करजदार रहते थे। जब से उनको माताजी ने प्रसन्ध अपने हाथ में ले लिया है, भैसे घर में लक्ष्मी आ गई है। तो भाई जान, यह हर दिल से निकाल डालो कि तुम मेरे समीप आ गये हो और अब सतत्र हो। मेरे देखते तुम बेराइ न चलने पाओगे। अगर तुम यो न मानोगे तो मैं (थप्पड़ दिखाकर) इसका प्रयोग भी कर सकता हूँ। मैं जानता हूँ, तुम्हें मेरी बातें जहर लग रही है।

मैं उनकी इस नई युक्ति से नतमस्तक हो गया। मुझे आज सचमुच अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई साहब के प्रति मेरे मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई। मैंने सजल आँखों से कहा-हरगिज़ नहीं। आप, जो कुछ फरमा रहे हैं, वह बिलकुल सच है और आपको उसके कहने का अधिकार है।

भाई साहब ने मुझे गले लगा लिया और बोले --- मैं कनकौए उड़ाने को मना नहीं करता। मेरा जो भो ललचता है। लेकिन करूँ क्या, खुद बेराह चलू, तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूँ ! यह कर्तव्य भी तो मेरे सिर है।