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शांति

स्वर्गीय देवनाथ मेरे अभिन्न मित्रों में थे। आज भी जब उनकी याद आ जाती है, तो वह रँगरेलियाँ आँखों में फिर जाती हैं, और कहीं एकान्त में जाकर ज़रा देर रो लेता हूँ। हमारे और उनके बीच में दो-ढाई सौ मिल का अन्तर था। मैं लखनऊ में था, वह दिल्ली में, लेकिन ऐसा शायद ही कोई महीना जाता हो कि हमें आपस में न मिल जाते हों। वह स्वच्छन्द प्रकृति के, विनोद-प्रिय, सहृदय, उदार और मिळू पर प्राण देनेवाले आदमी थे; जिन्होंने अपने और पराये में भी भेद नहीं किया। सच्चाई क्या है और यहाँ लौकिक व्यवहार का कैसे निर्वाह होता है, यह उस व्यक्ति ने कभी न जानने की चेष्टा की। उनके जीवन में ऐसे कई अवसर आये, जब उन्हें आगे के लिए होशियार हो जाना चाहिए था, मित्रों ने उनकी निष्कटता से अनुचित लाभ उठाया। और कई बार उन्हें लज्जित भी होना पड़ा; लेकिन उस भले आदमी ने जीवन से कोई सबक लेने की कसम खा ली थी। उनके व्यवहार ज़्यों-के-त्यों रहे-'जैसे भोलानाथ जिये, वैसे ही भोलानाथ मरे।' जिस दुनिया में वह रहते थे वह निराली दुनिया थी, जिसमें सन्देह, चालाकी और कपट के लिए स्थान न था—सब अपने थे, कोई गैर न था। मैंने बार-बार उन्हें सचेत करना चाहा। पर इसका परिणाम आशा के विरुद्ध हुआ। जीवन के स्वप्नों को भंग करते उन्हें हार्दिक वेदना होती थी। मुझे कभी-कभी चिन्ता होती थी कि इन्होंने हाथ बन्द न किया, तो नतीजा क्या होगा? लेकिन विडबना यह थी कि उनकी स्त्री गोपा भी कुछ उसी साँचे में ढली हुई थी। हमारी देवियों में से एक चातुरी होती है, जो सदैव ऐसे उड़ाऊ पुरुषों की असावधानियों पर 'ब्रेक' का काम करती है, उससे वह वंचित थी। यहाँ तक कि वस्त्राभूषण में भी उसे विशेष रुचि न थी। अतएव, जब मुझे देवनाथ के स्वर्गारोहण का समाचार मिला, और मैं भागा हुआ दिल्ली गया, तो घर में बरतन-भाँड़े और मकान के सिवा और कोई संपत्ति न थी। और अभी उनकी उम्र ही क्या थी, जो संचय की चिन्ता करते। चालीस भी तो पूरे न हुए थे। यों तो लड़कपन उनके स्वभाव में ही था; लेकिन इस उम्र में प्रायः सभी लोग कुछ बेफ़िक्र रहते हैं। पहले एक लड़की हुई थी। इसके बाद दो